Book Title: Mukmati Mimansa Part 03
Author(s): Prabhakar Machve, Rammurti Tripathi
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 543
________________ 'मूकमाटी' की सूक्तियाँ : आत्मकल्याण की संजीवनी बूटी डॉ. हेमलता सावकार कविता मूलत: सार्थक शब्दों की अभिव्यक्ति है । अज्ञेय का कहना है कि काव्य सबसे पहले शब्द है और सबसे अन्त में भी यही बात बच जाती है कि काव्य शब्द है । साहित्येतर तथा साहित्य की अन्य विधाओं की अपेक्षा कविता में शब्द का निरपेक्ष महत्त्व अधिक है । अंग्रेजी के प्रसिद्ध आलोचक क्रिस्टोफर कॉडवेल के शब्दों में : “कहानी, उपन्यास आदि में शब्द एक बाह्य वास्तविकता के पात्रों, दृश्यों और घटनाओं के संकेत चिह्नों के रूप में प्रयुक्त किए जाते हैं और लेखक द्वारा प्रदत्त रागात्मक प्रसंग उस चित्रित वास्तविकता से जुड़े होते हैं जब कि कविता में रागात्मक प्रसंग सीधे शब्दों से जुड़े होते हैं। परिणामस्वरूप उपन्यास, कहानी, नाटक उस गहराई तक शब्दों की कलाएँ नहीं हैं जिस तक कविता है।" आचार्य श्री विद्यासागरजी अनुभूतिप्रवण कवि हैं। उनका काव्यशिल्प तथा अभिव्यक्ति कला प्राय: उनके भावलोक से एकात्म होकर प्रकट हुई है। शिल्प को कारीगरी' के अर्थ में आचार्यजी ने पृथकत: महत्त्व नहीं दिया है। वह सहज, स्वाभाविक अभिव्यक्ति की कला के रूप में प्रस्तुत है। रचना करते समय भाव-विचारों की अभिव्यक्ति ही उनका प्रमुख लक्ष्य है। शब्दों अथवा अभिव्यंजना के नए प्रयोगों के लिए उन्होंने कुछ लिखा नहीं है, यह स्पष्ट है। कवि ने अभिव्यक्ति के माध्यम 'शब्द' पर यथासम्भव, असाधारण अधिकार प्राप्त किया है । स्वाध्याय और निरन्तर अभ्यास के द्वारा ही यह सम्भव हो सका है। दीर्घकालीन शब्द साधना की सुखद परिणति 'मूकमाटी' में देखने को मिलती है। __ आचार्यश्री की भाषा और शैली सहज है । अनेक जटिल संवेदनाओं को भी बिलकुल सीधे और साफ़, अकृत्रिम रूप में, अत्यन्त प्रभावशाली ढंग से व्यक्त करने में वह समर्थ हैं। इनकी भाषा में स्वाभाविकता, ऋजुता, प्रवाह और मौलिकता विद्यमान है । इस तरह भाषा का चरम और अलौकिक सौन्दर्य यहाँ देखा जा सकता है। 'मूकमाटी' की भाषा में प्रधानत: वर्णनात्मकता और बिम्बात्मकता मिलती है और ये दोनों गुण अत्यन्त प्रभावशाली ढंग से अपने आपको व्यक्त करने में सफल हैं। वर्णनात्मकता के अन्तर्गत घटनाओं का विस्तृत वर्णन मिलता है जो कि पाठक के मानस पर प्रभाव छोड़ता हुआ आगे बढ़ता है । संकोची, शर्मीली 'माटी' अपने उद्धार के लिए माँ - धरती से उन्नत जीवन का पथ और पाथेय पूछती है और आचार्यश्री की सन्तवाणी माँ द्वारा प्रस्तुत होती है। भाषा, चित्र बनाती हुई बढ़ती है जो पाठक को सहज ही ग्राह्य होने में समर्थ है। सम्पूर्ण कथानक चार खण्डों में विभक्त है । चारों खण्ड मुहावरों, कहावतों, लोकोक्तियों एवं सूक्तियों का कोष बन गए हैं। इनके कारण भाषा अत्यन्त सजीव, सशक्त तथा प्रभावी हो सकी है। विशेष उल्लेखनीय बात, शोभनोक्तियाँ तथा सूक्तियों की हैं। ये सूक्तियाँ केवल महाकाव्य की गरिमा को बढ़ाती नहीं बल्कि सहृदय पाठक के लिए संजीवनी बूटी के समान हैं, जिन सूत्रों के आधार पर वह आत्म-कल्याण का रास्ता तय कर सकता है। कुछ विशिष्ट सूक्तियाँ तथा शोभनोक्तियाँ द्रष्टव्य हैं। पहला खण्ड ‘संकर नहीं : वर्ण-लाभ' शीर्षक का है। बाकी तीनों खण्डों की अपेक्षा इसमें सूक्तियों की भरमार है, यथा : 0 "ईर्ष्या पर विजय प्राप्त करना/सब के वश की बात नहीं।" (पृ. २) __ "जैसी संगति मिलती है/वैसी मति होती है।" (पृ. ८)

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