Book Title: Mukmati Mimansa Part 03
Author(s): Prabhakar Machve, Rammurti Tripathi
Publisher: Bharatiya Gyanpith

Previous | Next

Page 542
________________ 456 :: मूकमाटी-मीमांसा की कला से उज्ज्वल चाँद का क्या काम या अस्तित्व हो सकता है ? प्रकृति के सुन्दर परिवेश में यह काव्य प्रारम्भ होता है । सम्पूर्ण विश्व में चेतनता का दर्शन करते हुए कवि कहते हैं कि सरिता जैसे सरपट दौड़ती रहती है और अपने लक्ष्य तक पहुँचती है, उसी तरह क्या जड़- क्या चेतन, सबको गतिशील होना चाहिए। फलतः 'सरिता तट की माटी' माँ धरती के सम्मुख अपना हृदय खोलती है। स्वयं अपने को पतित घोषित करती हुई वह माटी कहती है कि पतित को ही पद - दलित करना संसार का स्वभाव है । वह पति हालत से अपने उद्धार का मार्ग दिखाने की प्रार्थना माँ धरती से करती है। माँ धरती अपनी सहनशीलता के लिए ही नहीं, धैर्य और आशावादिता के लिए प्रसिद्ध है । स्मरण रखना चाहिए कि धरती ही मनुष्य को जन्म देती है और संघर्षमय जीवन के बाद अपनी गोद में चिरशान्ति देती है । 'जीव' के विकास के लिए बीज के समान ही समुचित क्षेत्र में उसका वपन होना चाहिए। समयोचित खाद, जल आदि यानी सुविधाएँ मिलें तो उसका सम्पूर्ण विकास होगा । 'बड़ का बीज' विशालकाय रूप धारण कर वट वृक्ष का रूप ले, तभी उसकी महत्ता होती है। 'संगति' के अनुसार मति होती है और गति होती है। जो अपनी कमज़ोरी पहचानता है, अपने आपकी लघुता समझता है वही आगे बढ़ सकता है। 'राम सो बड़ो है कोन, मो सो कोन खोटो है' की पहचान ही विनय का लक्षण है और तुलसीदास के समान वही विनयी होकर परम भक्त बन सकता है, वही अपना उद्धार कर सकता है । धरती माता का उपदेश सुनकर मिट्टी साधना के साँचे में स्वयं को सहर्ष ढालने तैयार होती है। वह जान लेती है कि आस्था के साथ साधना करनी चाहिए और साधना के समय आयास से डरना नहीं चाहिए एवं आलस्य से बचना चाहिए। साधना के रास्ते में प्रतिकूलता आए तो उसकी परवाह करनी ही नहीं चाहिए । धरती माँ का मार्गदर्शन पाकर मूकमाटी साधना व तपस्या का मार्ग अपना लेती है। “पूत का लक्षण पालने में'' (पृ.१४) की उक्ति को चरितार्थ करने को ठान लेती है । वह घोषित करती है कि "आस्था से रीता जीवन / यह चार्मिक वतन है, माँ!" (पृ.१६) । कुम्भकार की प्रतीक्षा में रात बिताकर दूसरे दिन सबेरे अपनी उद्धार यात्रा शुरू करती है। वह 'संकर दोष' बचती है और 'वर्ण लाभ' करती है। वह अनुभव करती है 'शब्द सो बोध नहीं और बोध सो शोध नहीं ।' वह 'पुण्य पालन' करती है और अपने 'पाप का प्रक्षालन' करती है। वह 'अग्नि परीक्षा' देती है और अपने आप को 'चाँदी-सा राख' सम उज्ज्वल बनाती है। साधारण माटी, जो सबके पैरों तले रौंदी जाती थी, अपनी कठिन साधना से मंगल कलशे नकर पूजनीय होती है । संक्षेप में, अपनी महती काव्य प्रतिभा से तुच्छ से तुच्छ माटी का उद्धार करके जीवन के महती उपासना तत्त्व को समझाने में आचार्यजी सफल हुए हैं। यद्यपि कथानक का अंश कम है, फिर भी उसका निर्वाह सुसंघटित रूप में सम्पन्न हुआ है। माटी की साधना यात्रा का वर्णन करते-करते अन्य गम्भीर बातों को प्रकट करके पाठक की उत्सुकता को बढ़ाने में यह काव्य सफल हुआ है । उदाहरण के रूप में गधे की पीठ को छिलते देखकर माटी के मन में जो दुःख होता है, वह सचमुच मार्मिक है। कुएँ की मछली जब 'धम्मो दया-विसुद्धों' की बालटी के द्वारा ऊपर आती है तब उसको अपने यहाँ ही रहकर साधना के द्वारा मोक्ष पाने का उपदेश माटी देती है । फलतः उसे फिर अपने पुराने स्थान पर पहुँचना पड़ता है। प्रकृति वर्णन, रस व्यंजना व शब्द चातुर्य से यह काव्य निखर उठा है। आचार्य विद्यासागर जब इस काव्य सृजन में लगे तब ऐसा लगता है विचार व सूक्तियाँ होड़ लगाकर आ बैठी हैं। फलत: विचारों के रत्न बिखरे पड़े हैं, जो पारखी हैं वही उन रत्नों को बटोर पाएगा ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 540 541 542 543 544 545 546 547 548 549 550 551 552 553 554 555 556 557 558 559 560 561 562 563 564 565 566 567 568 569 570 571 572 573 574 575 576 577 578 579 580 581 582 583 584 585 586 587 588 589 590 591 592 593 594 595 596 597 598 599 600 601 602 603 604 605 606 607 608 609 610 611 612 613 614 615 616 617 618 619 620 621 622 623 624 625 626 627 628 629 630 631 632 633 634 635 636 637 638 639 640 641 642 643 644 645 646 647 648