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460 :: मूकमाटी-मीमांसा
0 "संगीत उसे मानता हूँ/जो संगातीत होता है/और
प्रीति उसे मानता हूँ/जो अंगातीत होती है।” (पृ. १४४ - १४५)
“आशा ही को पाशा समझो।” (पृ. १५०) 0 “करुणा रस में/शान्त-रस का अन्तर्भाव मानना/बड़ी भूल है।" (पृ. १५५) 0 "चक्करदार पथ ही, आखिर/गगन चूमता/अगम्य पर्वत-शिखर तक
पथिक को पहुंचाता है/बाधा-बिन बेशक !" (पृ. १६२) "एक-दूसरे के सुख-दुःख में/परस्पर भाग लेना सज्जनता की पहचान है।" (पृ.१६८) "औरों के सुख को देख, जलना/औरों के दुःख को देख, खिलना
दुर्जनता का सही लक्षण है।" (पृ. १६८) - "जिसने जनन को पाया है/उसे मरण को पाना है
यह अकाट्य नियम है !" (पृ. १८१)
। “अब तो चेतें - विचारें/अपनी ओर निहारें।" (पृ. १८६) खण्ड-तीन का नाम है- 'पुण्य का पालन : पाप-प्रक्षालन ।' इसमें निम्नलिखित सूक्तियाँ-शोभनोक्तियाँ द्रष्टव्य हैं:
० "पर-सम्पदा की ओर दृष्टि जाना/अज्ञान को बताता है।" (पृ. १८९) 0 "पर-सम्पदा हरण कर संग्रह करना/मोह-मूर्छा का अतिरेक है।" (पृ. १८९) 0 "यह कटु-सत्य है कि/अर्थ की आँखें/परमार्थ को देख नहीं सकतीं।" (पृ.१९२) . "तुच्छ स्वार्थसिद्धि के लिए/कुछ व्यर्थ की प्रसिद्धि के लिए
सब कुछ अनर्थ घट सकता है !" (पृ. १९७) ० "धर्म, अर्थ और काम पुरुषार्थों से /गृहस्थ जीवन शोभा पाता है।" (पृ. २०४) . "स्त्री और श्री के चंगुल में फंसे/दुस्सह दुःख से दूर नहीं होते कभी।" (पृ.२१४) ० "लक्ष्मण-रेखा का उल्लंघन/रावण हो या सीता
राम ही क्यों न हों/दण्डित करेगा ही!" (पृ. २१७) ० "गुरु होकर लघु जनों को/स्वप्न में भी वचन देना/यानी
उनका अनुकरण करना/सुख की राह को मिटाना है ।" (पृ. २१९) 0 “सज्जन-साधु पुरुषों को भी,/आवेश-आवेग का आश्रय लेकर ही