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384 :: मूकमाटी-मीमांसा को अनुमति प्रेषित करती है। शिल्पी के अधरों पर स्मिति उभर आती है। धन की उपलब्धि के लिए विषय-कषायों का त्याग आवश्यक है । बिना पुण्य अर्जित किए आत्मा को सिद्ध शाश्वत स्वरूप की अनुभूति कराना असम्भव है।
तीसरे सर्ग में मिट्टी के घट के रूप में परिवर्तन की प्रक्रिया पुण्य-पाप दोनों से असम्बन्धित होती है। तृतीय खण्ड आचार्यश्री की दार्शनिक, आध्यात्मिक एवं सत्-ज्ञान की अनुभूति कराता है। "अर्थ की आँखें/परमार्थ को देख नहीं सकती,/अर्थ की लिप्सा ने बड़ों-बड़ों को/निर्लज्ज बनाया है"(पृ. १९२) ; अथवा "यही दया-धर्म है/यही जिया कर्म है" (पृ. १९३); अथवा "जल और ज्वलनशील अनल में/अन्तर शेष रहता ही नहीं/साधक की अन्तरदृष्टि में/निरन्तर साधना की यात्रा/भेद से अभेद की ओर/वेद से अवेद की ओर/बढ़ती है, बढ़नी ही चाहिए" (पृ. २६७) इत्यादि पंक्तियाँ जीवन को नूतन प्रकाश देनेवाली अर्थच्छवियों से युक्त हैं। इस विशालकाय ग्रन्थ की समीक्षा सीमित पृष्ठों में करना असम्भव प्रतीत होता है। किसी कृति की विषयवस्तु की विविधता को अभिव्यक्ति देने/करने के लिए स्वयं एक नए प्रबन्ध काव्य की अनिवार्यता अथवा स्वतन्त्र शोध प्रबन्ध की अनिवार्यता को दृष्टिगोचर कराता
'मकमाटी' में वर्णित माटी का शोधन, माटी का घट का आकार ग्रहण और अग्नि में तप कर जलधारण की योग्यता आदि का वर्णन बहुत सामान्य-सी बात है, जिसे एक कुम्भकार भी जानता है । फिर इस युग के इन महान् आचार्य ने इस बहुत सामान्य घटना को अपने महाकाव्य की विषय-वस्तु क्यों बनाया ? यथार्थ इसके बिल्कुल विपरीत है। वस्तुत: मिट्टी, शिल्पी तथा घट-निर्माण की प्रक्रिया में आए विभिन्न पात्रों और उनके प्रतीकार्थ को समझे बिना इस 'मूकमाटी' महाकाव्य की भावना-भूमि की सतह का स्पर्श करना ही अतिदुर्लभ है । वास्तव में यह कृति तो मानव मात्र को दार्शनिक तत्त्व चिन्तन की प्रक्रिया को समझने के लिए और आत्मसिद्धि को प्राप्त करने के लिए आचार्यश्री का लोक-कल्याणकारी मंगल आशीर्वाद है । माटी मूक है किन्तु वह देह का प्रतीक है। उसके भीतर आत्म-ज्ञानरूपी अमृत जल रखने के लिए तथा शुद्धता प्राप्त करने/बनाए रखने के लिए पुरुषार्थ का अवलम्ब लेना अनिवार्य होता है। घट निर्माण तथा आकृति ग्रहण करने में जितने भी पात्र उपकरण हैं, वे सभी निमित्तों के प्रतीक हैं। निर्माण की प्रक्रिया माटी में होती है किन्तु उसको मंगल घट रूप देना शिल्पी स्वयं मन में गढ़ लेता है। शिल्पी निर्माता होकर भी निर्माता नहीं है। माटी में घट रूप परिवर्तित होने की शक्ति विद्यमान रहने पर भी वह स्वयं घट का रूप ग्रहण करने में असमर्थ है।
'मूकमाटी' का प्रत्येक पृष्ठ जीवन्त महाकाव्य लिखने की प्रेरणा देता है, जिससे उसमें आत्मज्ञानरूपी जल निर्मल रूप से सुरक्षित रह सके । 'मूकमाटी' महाकाव्य का समापन ही निश्चयत: एक नए महाकाव्य की भूमिका छिपाए हुए है।
गीत और संगीत में थोड़ा अन्तर होता है। इनमें उत्तम कोटि का आनन्द उपलब्ध कराने की व्यवस्था होती है। अपने शैशव काल से ही सरगम ध्वनि यानी सा-रे-ग-म-प-ध-नि सुनते आए हैं। 'मूकमाटी' में आचार्यश्री ने 'सा-रेग-म-प-ध-नि' का भी उल्लेख किया है। इन सभी अक्षरों को पृथक-पृथक न रखकर, पास बुला लें। देखिए एक नया अर्थ. सारे गम यानी सारे गमों. यानी द:खों से छटकारा पाने का जो तरीका/रास्ता है. वही 'मकमाटी' का दिव्यसन्देश है । कुछ ऐसे शब्दों का विश्लेषण कर अर्थ प्रस्फुटित किया है जिसकी कभी हमने कल्पना भी नहीं की। यथा'गधा' शब्द को चुनें। गधा का सामान्य अर्थ गधा/मूर्ख अर्थ हम सब जानते ही हैं, मगर जो गधा हैं वे भी इतने गधा हो सकते हैं कि गधे का यह अर्थ नहीं समझें, यह बड़े आश्चर्य की बात है । आचार्यश्री ने गधा/गदहा अर्थ को एक नूतन अर्थवत्ता प्रदान की है- 'गद' यानी रोग और 'हा' यानी हरण करने वाला । गधे ने प्रभु से कामना की है कि प्रभु मुझे ऐसी शक्ति दो जिससे मैं सबके रोगों का हरण कर सकूँ । अगर हम में से प्रत्येक को गधे की कामना जैसी शक्ति प्राप्त हो और हमारे मनों में ऐसी भावना जाग सके कि हम दूसरे के रोगों का निवारण कर सकें, तो मैं समझता हूँ कि 'मूकमाटी' महाकाव्य का यह सबसे पुनीत और सबसे महत्त्वपूर्ण सन्देश हम सभी अपने जीवन में आचरित कर सकते