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मूकमाटी-मीमांसा :: 409
सांसारिक उलझनों को यति (विराम) देने वाला है तथा चिन्ताग्रस्त मस्तिष्क को शान्ति प्रदान करने वाला है।
"उत्तुंग-तम गगन चूमते/तरह-तरह के तरुवर छत्ता ताने खड़े हैं,/श्रम-हारिणी धरती है/हरी-भरी लसती है
धरती पर छाया ने दरी बिछाई है।" (पृ. ४२३) जो प्रकृति हमें सुख-शान्ति देती है, परिश्रम को हरती है, उसी के विनाश के लिए हम सर्वदा तैयार रहते हैं। हम अपने छोटे-छोटे स्वार्थों के लिए प्रकृति माँ पर अत्याचार करते हैं। कवि चिन्ता व्यक्त करते हुए कहते हैं :
"जीवन को मत रण बनाओ/प्रकृति माँ का व्रण सुखाओ ! ...जीवन को मत रण बनाओ/प्रकृति माँ का ऋण चुकाओ!
...जीवन को मत रण बनाओ/प्रकृति माँ का न मन दुखाओ।" (पृ. १४९) यह पृथ्वी बहुमूल्य खनिजों से परिपूर्ण है। वह कई प्रकार की वनस्पतियाँ हमें प्रदान करती है। लेकिन प्रकृति और मनुष्य के बीच लेन-देन का एक सन्तुलन होना चाहिए। 'कुमारी' का अर्थ व्यक्त करते हुए आचार्यजी पर्यावरण की चिन्ता भी करते हैं :
" 'कु' यानी पृथिवी/'मा' यानी लक्ष्मी/और/'री' यानी देनेवाली... इससे यह भाव निकलता है कि/यह धरा सम्पदा-सम्पन्ना
तब तक रहेगी/जब तक यहाँ 'कुमारी' रहेगी।" (पृ. २०४) __ भारतवर्ष संसार का ऐसा सौभाग्यशाली देश है जहाँ ऋतुओं की विविधता दिखाई देती है। लेकिन यदि हम प्रकृति का शोषण इसी अनुपात में करते रहेंगे तो प्रकृति की वे ऋतुएँ मात्र इतिहास के पन्नों में दिखाई देंगी।
"वह राग कहाँ, पराग कहाँ/चेतना की वह जाग कहाँ ? ।
वह महक नहीं, वह चहक नहीं,/वह ग्राह्य नहीं, वह गहक नहीं।” (पृ. १७९) दार्शनिक स्वर
_ 'मूकमाटी' एक साहित्यिक कृति ही नहीं अपितु धर्म, दर्शन एवं अध्यात्म का विवेचन प्रस्तुत करने वाला ग्रन्थ भी है। कविता में दर्शन जैसे जटिल विषय को प्रस्तुत करने के बावजूद कविता को धर्म एवं दर्शन के भार से बोझिल नहीं होने दिया बल्कि धर्म की बड़ी सहजता एवं सुगमतापूर्वक प्रस्तुति की है।
आचार्यजी धार्मिक कट्टरता के विरोधी हैं। वे धर्म के उस मार्ग को सर्वोत्तम मानते हैं जो आडम्बर रहित हो और सर्वग्राह्य हो । सत्य का अन्वेषण धर्म की प्रमुख प्रवृत्ति है । सत्य किसी युग की प्रवृत्ति नहीं है । वह प्रत्येक युग में विद्यमान रहता है । यह कहकर कि अब तो जमाना बदल गया है, कलियुग आ गया है, जीवनयापन करने के लिए परिस्थितियों के अनुरूप असत्य का भी आश्रय लेना पड़ता है-आदि कहकर सत्य को नकार नहीं सकते। सत्-युग और कलियुग ये दो जीवन दृष्टियाँ हैं, युग विशेष नहीं । माटी मछली से कहती है :
“सत्-युग हो या कलियुग/बाहरी नहीं/भीतरी घटना है वह सत् की खोज में लगी दृष्टि ही/सत्-युग है, बेटा !/और