________________
'मूकमाटी' : आध्यात्मिक महाकाव्य
डॉ. परशुराम 'विरही'
'मूकमाटी' अध्यात्म स्तर पर रचित महाकाव्य के नाम से प्रकाशित श्रेष्ठ कोटि की रचना है, महाग्रन्थ है । 'मूकमाटी' में जो काव्य रचना है, उसे मैं सन्त की आत्मा का संगीत मानता हूँ, सन्त भी वे जो साधना के जीवन्त रूप होते हैं ।
ग्रन्थ की भूमिका में कहा गया है कि माटी नायिका है, कुम्भकार नायक है । यह तो आध्यात्मिक रोमांस है। इस आध्यात्मिक रोमांस के लिए कबीर ने बड़ा प्रयत्न किया। कबीर के पास दो पक्ष हैं - एक सहज पक्ष तो दूसरा कठिन पक्ष, जिसे हठयोग भी कहते हैं। इस हठयोग में छह चक्रों को भेदने के लिए वे जीव को प्रस्तुत करते हैं जो सहज रूप दर्शाने के लिए राम की बहुरिया हैं। आचार्यप्रवर ने इस ग्रन्थ में उन सहज समाधि की स्थितियों का प्ररूपण बहुत सहजता से कर दिया है । जन सामान्य तक पहुँचाने के लिए मीरा जिस सहज भाव में लीन हो जाती थीं, ठीक उसी भाव में आचार्यश्री ने इस 'मूकमाटी' महाग्रन्थ में जगह-जगह पर ऐसे स्थल - -बिन्दु सहजता से उपस्थित कर दिए हैं जो जन सामान्य तक सीधे पहुँच कर उसके अन्तस् को छू लेते हैं ।
भारतीय दर्शन में आत्म तत्त्व को प्रकाश के स्वरूप में बतलाया गया है। आचार्यप्रवर ने भी उसी ओर हमारा संकेत किया है। प्रकाश का स्वरूप गोस्वामी तुलसीदास ने यों बतलाया है :
" विषय करण सुर जीव समेता, सकल एक से एक सचेता । सब कर परम प्रकासक जोई, राम अनादि अवधपति सोई ।'
""
आचार्यप्रवर विद्यासागरजी ने 'मूकमाटी' के दूसरे खण्ड में परम स्वरूप की चर्चा की है और उस तक पहुँच
सीधे मार्ग को सहजतया समझाने के लिए संस्कृत के क्लिष्ट शब्दों में भी प्रकट कर दिया । आचार्यश्री ने इसमें
जो शब्दों का उलटफेर किया है, उस सम्बन्ध में यह कहना चाहूँगा कि आजकल की समकालीन कविता में यही शिल्प है। वस्तुत: ये बहुत कठिन शिल्प है और इसका निर्वाह भी बहुत कठिन है, परन्तु आचार्यप्रवर ने इस विशालकाय ग्रन्थ में उसे भी बहुत सरलतया रीति से शिल्प की विधा को आत्मसात् कर स्पष्ट दिशा दी है।
श्रीकान्त वर्मा ने एक कविता में इस शिल्प के माध्यम से ही काव्य समीक्षा की है। वस्तुत: समकालीन कविता का शिल्प विधान ही ऐसा है कि उसमें हेर-फेर और उलट-पुलट कर दिया जाता है, जिसे अर्थाभास कहना चाहिए। इस विधा से एक भिन्न प्रकार की ध्वन्यात्मकता प्रकट की जाती है और इस ध्वन्यात्मकता से व्यक्ति के भीतर एक विशिष्ट आनन्द की उत्पत्ति होती है। यही आनन्द परमानन्द स्वरूप है। प्रसादजी ने कहा है :
66
'ज्ञान दूर कुछ, क्रिया भिन्न है, / इच्छा क्यों पूरी हो मन की ? एक दूसरे से मिल न सके / यह विडम्बना है जीवन की !”
ज्ञान और क्रिया का समन्वय करने का मार्ग आचार्यप्रवर ने इस 'मूकमाटी' में सहज रूप से प्रदर्शित किया है और हम सभी का आह्वान किया है कि इस समीचीन मार्ग को धारण कर अपने जीवन को सफल एवं आदर्शमय बनाएँ