________________
: मूकमाटी-मीमांसा
446 ::
संयम का जीवन में सर्वश्रेष्ठ महत्त्व है । पाइथागोरस ने भी कहा है : "No man is free who cannot command himself.” संयम का महत्त्व समझने के लिए प्रथम तो वैचारिक पृष्ठ भूमि समतल और निर्मल होनी चाहिए। "वासना का विलास/मोह है" (पृ. ३८) यह समझकर हम वासना को संक्षिप्त करें या मिटा डालें । “मन के गुलाम मानव की / जो कामवृत्ति है / तामसता काय-रता है/ वही सही मायने में / भीतरी कायरता है !" (पृ. ९४ ) । इस भीतरी कायरता को छोड़ना है। आचार्यश्री कहते हैं: "दम सुख है,... / मद दु:ख है..." (पृ. १०२ ) । संयम का उपदेश इससे अच्छा भला क्या हो सकता है ?
इस प्रकार वैचारिक पृष्ठभूमि को निर्मल बनाकर - "स्थिर मन ही वह / महामन्त्र होता है" (पृ. १०९) यह जानकर " अपने आप में भावित होना ही / मोक्ष का धाम है" (पृ. १०९ - ११०) यह समझना है । उसको "साकार करना होता है, सत्-संस्कारों से" (पृ. १४८) । शब्द का संयोजन आचार्यश्री इस तरह करते हैं कि वह सूक्ति बन जाए, जैसे"सिद्धान्त अपना नहीं हो सकता / सिद्धान्त को अपना सकते हम " (पृ. ४१५ ) ; "क्या दर्शन और अध्यात्म / एक जीवन के दो पद हैं ?" (पृ. २८७); " अध्यात्म स्वाधीन नयन है /... स्वस्थ ज्ञान ही अध्यात्म है" (पृ. २८८ ); "स्व की उपलब्धि ही सर्वोपलब्धि है" (पृ. ३४०); " नैमित्तिक परिणाम कथंचित् पराये हैं" (पृ. ३०५ ); "अहं से यदि प्रीति हो/ तो सुनो ! / चरम से भीति धरो / शम- धरो / सम वरो !” (पृ. ३५५ ); "ज्ञान का जानना ही नहीं / ज्ञेयाकार होना भी स्वभाव है" (पृ. ३८१) ।
वुडवर्थ के अनुसार स्मृति का सीखना, धारण करना, पुनरावर्तन और पहिचानना - ये चारों प्रक्रियाएँ शब्दालंकार से सुलभ हो जाती हैं। शायद इसीलिए शब्दालंकार का यत्र-तत्र उपयोग है। हाँ, इतनी सावधानता है कि केवल शब्दच्छल न हो । मानना होगा कि शब्द जब अलंकार बनते हैं तो पुनर्जागरण के लिए उपयोगी होते हैं :
“निशा का अवसान हो रहा है / उषा की अब शान हो रही है।" (पृ. १ )
इन पंक्तियों में 'मुरज बन्ध' जैसी रचना चमत्कृति का परिचय देने के साथ-साथ प्रस्तुतीकरण की स्पष्टता भी है । धर्म का मूल स्रोत अहिंसा है। 'दया' यह मन्त्र है, उसे 'याद' रखना कर्तव्य है, यह बताते हुए आचार्यश्री कहते हैं : "स्व की याद ही / स्व- दया है" (पृ. ३८) । शब्द चमत्कृति के प्रस्तुतीकरण को यहाँ अध्यात्म - उपदेश का मोड़ दिया है । विलोम पद्धति का विचार सम्प्रेषण के लिए अच्छा उपयोग किया है। शब्द को सामर्थ्य तो उसकी समीचीन योजना देती है । 'राही', 'राख', 'लाभ', 'रसना' इत्यादि ये ऐसे ही शब्द हैं, जो सशक्त बने हैं ।
शब्दों के धनी होना 'रटन' से हो सकता है, किन्तु उस शब्द धन को सुचारु रूप से रसिकों के सामने रखना और उन्हें सौन्दर्य - दान देना, अम्लान प्रतिभा के ही हाथ से सम्भव है। 'कुम्भ, 'रस्सी, 'मर, हम मरहम बनें' तथा 'अपराधीन' जैसे अनेक शब्द हैं जिनके अर्थों को गम्भीरता से ढाला है । पृ. ६४ पर 'आदमी' का ऐसा अर्थ किया है कि अर्थ बताते कर्तव्य को भी बता दिया । कविता की व्याख्या आजकल तो खुजलाहट ही होती जा रही है । शब्दों को मनमानी संयोजना में ढालकर वाचकों के सामने प्रस्तुत किया जाता है तथा गद्य के परिच्छेद की यत्र-तत्रानुपूर्वी से रचना की जाती है। उसका 'मुक्त छन्द' नामकरण होता है । आजकल की व्याख्या और प्रयास को दूर रखकर आचार्यश्री ने अपनी कविता को सुखद साधना की अनुभूति से ओतप्रोत किया है । पृ. १२४ पर 'अपना लो' शब्द को, पुरुषार्थ जो श्रेयस्कर होता है, निर्मल रूप से सामने रखा है।
कविता को आज अधिक से अधिक लोगों तक पहुँचना है। उसके लिए 'मूकमाटी' अमूक होकर विहार करती । काव्य अमर कला है, तो उसे कैसा रूप देना चाहिए, इसकी जानकारी (Information) तो हर कवि को होती है,