Book Title: Mukmati Mimansa Part 03
Author(s): Prabhakar Machve, Rammurti Tripathi
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 537
________________ आध्यात्मिक उत्कर्ष का रसकलश : 'मूकमाटी' डॉ. आदित्य प्रचण्डिया 'दीति' अन्तस्थ भावनाओं को जाग्रत करने की शक्ति का नाम कवि है और भावनाओं से परिमार्जित मति का नाम कविता है । कवि मनीषी होता है । वह शब्दकार होता है और मानव स्वभाव का चित्रकार भी । उसके लोचन स्वर्ग से भूतल और भूतल से स्वर्ग तक की यात्रा करते हैं। उसमें प्रतिभा, व्युत्पत्ति और अभ्यास का समीकरण होता है । श्रमण संस्कृति की काव्यधारा बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा के अमृतरस का पान कराती है। पथ का पाथेय जुटाती है। अशुभ से शुभ और शुभ से शुद्ध की ओर बढ़ने के लिए - संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश से होती हुई जीव तत्त्वों से अनुप्राणित, सृजन की यह काव्यधारा हिन्दी में अपनी अनन्त यात्रा के अनुक्रम में आज भी प्रवहमान है । गुणवत्ता और परिमाण की दृष्टि से जैन काव्यकारों का प्रदेय महनीय है । आचार्य श्री विद्यासागर जीवन्त अनुभूतियों के रससिद्ध काव्यकार हैं । कवि जब ऋषिभाव को जीता है तब उसका हर कहा, लिखा ऋषि-भाषा का अमृत जल बन जाता है। आचार्यश्री पारम्परिक सिंहासन पर विराजते हुए भी खरी बात बोलते हैं। साधु की सच्ची पहचान उसकी निर्भीकता और भाषा में हैं जो तन्द्रा की अफ़ीम चाहने वाले समाज को उद्बोधन देती है । अपनी परिपक्व साधनावस्था में ही कुछ महानुभाव सिद्धावस्था का आनन्द भोगते हुए दिखाई देते हैं । आचार्यश्री ऐसे ही कवि हैं जिनकी कविता का लक्ष्य सत्य की शुभ्र ज्योति है । आचार्यश्री की कविता में अनुभूति की प्रधानता है, अभिव्यक्ति की सहजता है और है आत्म संवेदना की स्वाभाविकता | 'मूकमाटी' में आचार्यश्री के अन्तरंग का अमृत है । उन्होंने कविता को क्षोभ, कुण्ठा और सन्त्रास के बजाय प्राण, श्वास और विश्वास से भर दिया है। ऋषि - कवि का जीवन चिन्तन और साधना का विषय होता है, अस्तु । आचार्यश्री सत्य और शब्दों के माध्यम से सत्य की मूर्ति का अभिषेक करते हैं। मेरा मानना है कि जब कोई सर्जक किसी विश्वास, श्रद्धा, आन्दोलन, वाद, आइडियोलॉजी को अपने जीवन में घटते देख समाज में उसके प्रतिफलित होने की प्रक्रिया को अनुभवता है, सोचता है और लिखता भी जाता है तो उसकी कविता जो रूपाकार धारण करती है, वह विशिष्ट होती है । यह विशिष्टता ही कवि के चिन्तन की धुरी होती है। आचार्यश्री प्रणीत 'मूकमाटी' इसी धुरी का सुपरिणाम है । इस महाग्रन्थ के 'प्रस्तवन' में सुधी लेखक-विचारक श्री लक्ष्मीचन्द्र जैन के विचार द्रष्टव्य हैं: "... आचार्य श्रौ विद्यासागर की कृति 'मूकमाटी' मात्र कवि-कर्म नहीं है, यह एक दार्शनिक सन्त की आत्मा का संगीत है - सन्त जो साधना के जीवन्त प्रतिरूप हैं और साधना जो आत्म-विशुद्धि की मंज़िलों पर सावधानी से पग धरती हुई, लोकमंगल को साधती है । ये सन्त तपस्या से अर्जित जीवन-दर्शन को अनुभूति में रचा- पचाकर सबके हृदय में गुंजरित कर देना चाहते हैं। निर्मल-वाणी और सार्थक सम्प्रेषण का जो योग इनके प्रवचनों में प्रस्फुटित होता है- उसमें मुक्त छन्द का प्रवाह और काव्यानुभूति की अन्तरंग लय समन्वित करके आचार्यश्री ने इसे काव्य का रूप दिया है।' जिनका जीवन स्व-पर-कल्याण के लिए समर्पित, जिनका सृजन मानवीय चेतनाओं के गहरे में छिपे आलोक को अनावृत करने को संकल्पित है, जिनके अधरों पर प्रतिपल मुस्कराहट के फूल खिले रहते हैं और जो प्रतिक्षण जाग्रत रहकर जागरण का सन्देश प्ररूपित करते हैं, उन महामनस्वी चेतना के उच्चाशय शिखर - स्पर्शी आचार्य श्री विद्यासागरजी ने अपने आध्यात्मिक अभिनव प्रयोगात्मक काव्य 'मूकमाटी' को चार खण्डों में विभक्त किया है। प्रथम खण्ड 'संकर नहीं : वर्ण-लाभ' में ऋषि - कवि ने उस दशा के परिशोधन की प्रक्रिया को अभिव्यक्त किया जहाँ माटी पिण्ड रूप में कंकर - कणों से मिली-जुली अवस्था में है। माटी अभी वर्ण संकर है, चूँकि उसकी प्रकृति के विपरीत अनमेल तत्त्व

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