Book Title: Mukmati Mimansa Part 03
Author(s): Prabhakar Machve, Rammurti Tripathi
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 506
________________ 420 :: मूकमाटी-मीमांसा आवश्यकता है । मेरा यही कहना है कि हम अपनी आवश्यकता को पहले देखें, उसकी गम्भीरता को समझें और बिना बात के कठमुल्लावादी बहस में न उलझें कि हम बाजार तन्त्र में पूरा विश्वास रखते हैं या उसे पूरी तरह नकारते हैं”(‘दैनिक नईदुनिया', इन्दौर, ८-११ - ९८ में भेंटवार्ता) । आर्थिक विचार व आचार में विकृति के परिणाम : इस विकृति के व्यक्ति और समाज के दैनिक व्यवहार, रीतिरिवाज़ और नैतिकता पर प्रत्यक्ष प्रभाव होते हैं। मानव-व्यवहार के केन्द्र में धन होने से साधन की शुचिता - अशुचिता के निर्णय के लिए अनुकूल तर्क खोज लिए जाते हैं । ये तर्क मानव - केन्द्रित नहीं होते, धन केन्द्रित होते हैं। अतः सामाजिक व्यवहारों में अपवित्रता, अन्याय, घोटाले, हत्या आदि घटित होते हैं । आचार्यजी की शुद्ध सामाजिक चेतना इन शब्दों में प्रकट होती है : 66 .. खेद है कि / लोभी पापी मानव / पाणिग्रहण को भी प्राण- ग्रहण का रूप देते हैं। / प्राय: अनुचित रूप से / सेवकों से सेवा लेते/और वेतन का वितरण भी अनुचित ही । / ये अपने को बताते / मनु की सन्तान ! महामना मानव ! / देने का नाम सुनते ही / इनके उदार हाथों में पक्षाघात के लक्षण दिखने लगते हैं ।" (पृ. ३८६-३८७) समाज में प्रचलित दहेज प्रथा के कारण नारी के प्रति होने वाले अत्याचार, सन्त्रास, जलकर, जहर खाकर या डूबकर आत्म-हत्या कर लेने पर एक संवेदनशील सन्त - कवि आँख नहीं मूँद सकता । अदालत में न्याय मिलने में विलम्ब और व्यय भार को देखकर कवि कहता है : " आशातीत विलम्ब के कारण / अन्याय न्याय - सा नहीं न्याय अन्यास-सा लगता ही है।” (पृ. २७२) प्रतिदिन पुण्य बटोरने देव-दर्शन को जाते हैं, धर्म पुस्तकें भी पढ़ते हैं और सन्तों के बखान भी सुनते हैं। लेकिन परिवर्तन नहीं होता, जैसी कि उक्ति है : "खल की काली कामरी चदै न दूजो रंग " ऐसी स्थिति का कारण सन्त-प्रवर इन शब्दों में प्रकट करते हैं : "कुछ समय तक / पीयूष का प्रभाव पड़ना भी नहीं है / इस जीवन पर ! जो विषाक्त माहौल में रहता हुआ / विष- सा बन गया है।” (पृ. २७२) 'मूकमाटी' को पढ़ते हुए उसकी भाषा, भाव, अभिव्यक्ति और सामाजिक व आर्थिक विश्लेषण को पढ़कर ऐसा लगता है कि एक विद्वान् प्रगतिशील कवि की कविता का आस्वादन कर रहे हैं। उनका सन्देश है : " कुम्भ के जीवन को ऊपर उठाना है, / और / इस कार्य में और किसी को नहीं, / तुम्हें ही निमित्त बनना है ।" (पृ. २७३ ) ऐसा लगता है कि 'गीता' (६/५) के कृष्ण बोल रहे हैं- “उद्धरेदात्मनाऽऽत्मानम् । "

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