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मूकमाटी-मीमांसा :: 389
के बीच में रहते । कठोर तप के जितने रूप होते या हो सकते, उन सभी को वह सहन करते । उन श्रमणों को एक समाचार मिला । उनके निकटवर्ती ग्राम में भगवान् बुद्ध का संघ आया हुआ है और वहाँ पर वह प्रवचन-उपदेश कर रहे हैं। दोनों श्रमण उनके उपदेश को सुनने पहुँचे । उन दो में से एक श्रमण भगवान बुद्ध के उपदेशों से प्रभावित हुआ और वह दूसरे से बोला : “मैं इनसे दीक्षा लेना चाहता हूँ।" दूसरे ने जवाब दिया : "तुम्हारी तुम जानो, अभी मैं अपने बारे में सोचूँगा।" दूसरे शिष्य ने प्रवचनोपरान्त एक प्रश्न किया : “भगवन ! हमें यह बतलाएँ, आपने जो बुद्धत्व प्राप्त किया है, क्या वह आप मुझमें भर सकते हैं ? (भौतिक शास्त्र में जिसे ट्रान्समिशन कहते हैं, तद्रूप क्रिया मुझमें कर सकते हैं ? आप में जो बोध या ज्ञान है वह ज्यों का त्यों मुझ में ट्रान्समिट हो सकता है ?)" भगवान् कुछ मुसकराए और बोले, "तुम बहुत चतुर हो।” परन्तु प्रश्न का कोई जबाव नहीं दिया और अन्यत्र विहार कर गए। लेखक ने लिखा कि जो दूसरा श्रमण था वह बुद्ध के बैठने के तरीके से प्रभावित था । वे चलते तो उनके हाथ जिस तरह चलते-घूमते, उनसे वह प्रभावित था । अर्थात् बुद्ध की समग्रता- क्रियाओं से प्रभावित था। लेकिन प्रश्न का उत्तर नहीं देने के तरीके से प्रभावित नहीं हुआ और दूसरे श्रमण से बोला : “मैंने तो निर्णय कर लिया कि इनका शिष्यत्व ग्रहण नहीं करूँगा।" और वह भी वहाँ से चला जाता है । कथा बहुत लम्बी है । अन्त में वह एक नदी पार करने हेतु शाम के समय तट पर पहुँच कर मल्लाह से नदी पार कराने के लिए कहता है । नाविक ने आग्रह कर निवेदन किया चूँकि शाम अधिक हो चुकी है, अब मैं नाव नहीं चला सकूँगा, अतएव आप रात्रि विश्राम मेरी कुटी में ही करें। प्रात: वह नदी पार करा देता है। अनेक वर्षों के बाद पुन: उसी नगरी से होते हुए वे श्रमण पहुँचते हैं। पुन: उसी मल्लाह से नदी पार कराने के लिए कहते हैं। नदी पार करा देने पर मल्लाह से पूछते हैं चूँकि मैंने पहली बार भी पैसे नहीं दिए थे और अभी भी नहीं, इस पर तुम सन्तुष्ट कैसे रहते-दिखाई देते हो ? मल्लाह ने कहा चूँकि आपके पास कुछ है ही नहीं, अत: लेने-देने का प्रश्न ही नहीं उठता और फिर मैने आप से पैसे माँगे भी नहीं। जहाँ तक सन्तुष्टि का प्रश्न है तो मेरी समस्याओं का समाधान सदैव यह नदी कर देती है। मैं एकान्त में तट के किनारे पर स्थित पत्थर पर बैठ जाता हूँ और नदी से प्रश्न करता हूँ और नदी मेरी समस्या का
न सहज ही कर देती है। इस विशेषता से प्रभावित वह श्रमण उस एकान्त किनारे के पत्थर पर बैठता है। मल्लाह जाते हुए समझा जाता है कि प्रश्न एकाग्रचित्त से करना, तभी उत्तर मिल सकेगा। ऐसा ही होता है। नाविक के लौटकर आने पर श्रमण कहता है कि तुमने मुझे आज जो ज्ञान दिया है, वह अन्यत्र कहीं नहीं मिला। मेरे सभी प्रश्नों का उत्तर नदी ने देकर मुझे सन्तुष्ट कर दिया।
_ 'मूकमाटी' में भी नदी उत्तर देती है। वह ज्ञान के द्वारा सम्बोधन करती है । आचार्यश्री ने इसमें कहा है : "आस्था से वास्ता होने पर/रास्ता स्वयं शास्ता होकर/सम्बोधित करता साधक को" (पृ. ९)- जो उपरोक्त कथानक से बहुत कुछ मिलता-जुलता है। भगवान् बुद्ध ने परम शिष्य आनन्द को अन्तिम वाक्य कहे थे : "अप्पदीवो भव" अर्थात् अपने दीपक खुद बनो। वैसे ही आचार्यश्री ने बतलाया है कि साधक का जो साधना पथ है, वही उसके लिए साधक, सहायक है, साथ ही उपदेशक भी। ठीक ढंग से पथ पर चलने से, मनोयोग पूर्वक क्रिया करने से वह पथ ही उसका उपदेशक, मार्ग दिखलाने वाला हो जाता है।
अन्त में मूक होते हुए भी इस वाचाल माटी के सम्बन्ध में एक शेर कहकर अपनी शब्द यात्रा को विराम देता
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"इसे सैय्यद ने कुछ, गुल ने कुछ, बुलबुल ने कुछ समझा। चमन में कितनी मानी खेज़ थी इक खामोशी मेरी।"