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मूकमाटी-मीमांसा :: 395
"अध्यात्म स्वाधीन नयन है/दर्शन पराधीन उपनयन ।” (पृ. २८८) अध्यात्म स्वस्थ ज्ञान है, दर्शन संकल्प-विकल्पों में व्यस्त होता है । दर्शन विचार है, अध्यात्म निर्विचार । कुछ मर्मस्पर्शिनी सूक्तियाँ मन और बुद्धि दोनों को झकझोरती हैं :
“अपनी प्यास बुझाये बिना/औरों को जल पिलाने का संकल्प
मात्र कल्पना है,/मात्र जल्पना है।" (पृ. २९३) और देखिए – रुपये का कोई मूल्य नहीं है :
"स्वर्ण का मूल्य है/रजत का मूल्य है/कण हो या मन हो प्रति पदार्थ का मूल्य होता ही है ।/परन्तु,
धन का अपने आप में मूल्य/कुछ भी नहीं है।" (पृ. ३०७-३०८) अध्यात्म की भूमि पर रचित इस काव्य की दृष्टि से आधुनिक समाज और राजनीति की असंगतियाँ ओझल नहीं हुई हैं । पग-पग पर युगीन चेतना मुखरित हुई है। आतंकवाद अतिपोषण या अतिशोषण से ही जन्मता है :
“मान को टीस पहुँचने से ही,/आतंकवाद का अवतार होता है।
अति-पोषण या अतिशोषण का भी/यही परिणाम होता है।" (पृ. ४१८) साथ में यह भी ध्यान रखना आवश्यक है :
"जब तक जीवित है आतंकवाद/शान्ति का श्वास ले नहीं सकती,
धरती यह ।” (पृ. ४४१) पद का अभिमान कैसा होता है, कवि के शब्दों में देखें :
“पदवाले ही पदोपलब्धि हेतु/पर को पद-दलित करते हैं
...जितने भी पद हैं/वह विपदाओं के आस्पद हैं।” (पृ. ४३४) धरती के आभूषण श्रमजीवी हैं, जिन्होंने इसे सजाया, सँवारा है :
"जो कुछ है धरती की शोभा/इन से ही है
और, इन जैसे सेवा-कार्य-रतों से।” (पृ. ४५८) धनसंग्रह से ही चोरों का जन्म होता है, इसीलिए आवश्यकता जनसंग्रह की है न कि धनसंग्रह की। अन्यथा 'ये चोरी मत करो' का उपदेश नाटकीय है । धनसंग्रही ही चोर हैं, चोरों के जन्मदाता हैं :
“अब धन-संग्रह नहीं,/जन-संग्रह करो!/और/लोभ के वशीभूत हो अंधाधुन्ध संकलित का/समुचित वितरण करो/अन्यथा, धनहीनों में/चोरी के भाव जागते हैं, जागे हैं।" (पृ. ४६७-४६८)