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मूकमाटी-मीमांसा :: 213
माँ के हृदय में दूध रुक नहीं सकता/बाहर आता ही है उमड़ कर,
इसी अवसर की प्रतीक्षा रहती है/उस दूध को।" (पृ. २०१) प्रकृति चित्रण भी इस महाकाव्य में समुचित रूप में हुआ है । इसका प्रारम्भ ही प्रकृति चित्रण से हुआ है। प्रकृति-चित्रण में महाकवि ने आलम्बन, उद्दीपन, आलंकारिक वातावरण, मानवीकरण, संवेदनात्मक, उपदेशात्मक, रहस्यात्मक आदि रूपों को विशेष प्रधानता दी है। प्राकृतिक उपादानों में कुमुदिनी, चाँदनी, सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र, सौरभ, पवन, सागर, सरिता तट आदि का चित्रण है। प्रकृति चित्रण के तहत ऋतुओं का वर्णन भी यथेष्ट रूप में हुआ है। ऋतु वर्णन में ग्रीष्म, वर्षा और शीत की प्रमुखता है।
___ 'मूकमाटी' महाकाव्य की भाषा खड़ी बोली हिन्दी है । इसकी भाषा में ओज, प्रसाद एवं माधुर्य गुण की प्रधानता है । भावाभिव्यंजना में भाषा पूर्ण समर्थ जान पड़ती है । गहन विषयों का भी प्रस्तुतीकरण जिस सुगमता से हुआ है, वह अपने आप में एक मिसाल है । इसकी भाषा में लाक्षणिकता और व्यंजनात्मकता की प्रमुखता दृष्टिगोचर होती है। इसके अतिरिक्त ध्वन्यात्मकता, चित्रात्मकता, नाटकीयता पूर्ण भाषा का भी उपयोग कविवर ने बखूबी किया है। भाषा सौन्दर्य को और प्रभावशाली बनाने में मुहावरों, कहावतों, लोकोक्तियों एवं सूक्तियों का भी प्रचुर योग है । आचार्य की भाषा प्रांजल, सरस, भावानुकूल एवं प्रवाहपूर्णता से युक्त है । भाषा में तत्सम, अर्द्ध तत्सम, तद्भव, देशज एवं विदेशज शब्दों का भी धड़ल्ले से प्रयोग हुआ है।
छन्द विधान की दृष्टि से यह महाकाव्य मुक्तक छन्द में निर्मित हुआ है । जहाँ-तहाँ तुकान्त एवं अतुकान्त छन्द योजना दिखाई देती है वहाँ सामान्यत: भाव, भाषा, प्रसंग और शैली के अनुरूप ही छन्द योजना की गई है। सममात्रिक, अर्द्ध सममात्रिक एवं विषम मात्रिक छन्दों का विशेष प्रयोग हुआ है । 'मूकमाटी' काव्य में सन्त कवि ने संस्कृतनिष्ठ शैली का प्रयोग अत्यधिक मात्रा में किया है। प्रस्तुत काव्य का भाव एवं कलापक्ष दोनों ही समृद्ध प्रतीत होता है।
अलंकारों की योजना भी यथेष्ट रूप में की गई है । आचार्य ने उपमा, उत्प्रेक्षा, यमक, रूपक, श्लेष आदि अलंकारों का प्रयोग अपने महाकाव्य में आवश्यकतानुसार किया है, जिससे काव्य के सौन्दर्य में वृद्धि हुई है।
भारतीय संस्कृति के मूलमन्त्र 'यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते...' की चरितार्थता कवि ने 'मूकमाटी' महाकाव्य में प्रस्तुत की है। हिन्दी कवियों ने अपनी रचनाओं के माध्यम से उपेक्षित पात्रों के उद्धार का प्रयत्न किया है किन्तु उनका प्रणयन सजीव पात्रों को आधार बनाकर किया गया है, माटी जैसी निर्जीव वस्तु को लेकर नहीं।
जैन धर्म में नारी के प्रति नकारात्मक धारणा संसार में विषबेल नारी, तज गए योगीश्वरा' प्रचलित है। इसी का प्रभाव मध्यकालीन सन्त कवियों और तुलसी के पदों में भी दीख पड़ता है । परन्तु, आचार्य विद्यासागरजी ने नारी के सम्बन्ध में एक नई अवधारणा का प्रतिपादन किया है जो समसामयिक, वैज्ञानिक एवं सुसंगत प्रतीत होती है । आचार्यवर के शब्दों में नारी की महत्ता इस प्रकार स्पष्ट होती है:
"इनकी आखें हैं करुणा की कारिका/शत्रुता छू नहीं सकती इन्हें मिलन-सारी मित्रता/मुफ्त मिलती रहती इनसे । यही कारण है कि इनका सार्थक नाम है 'नारी'/यानी- 'न अरि' नारी""/अथवा
ये आरी नहीं हैं/सो"नारी"।" (पृ.२०२) प्रस्तुत महाकाव्य में जीव, जगत्, माया, मोह, आत्मा, परमात्मा और मोक्ष सम्बन्धी विचारों को बड़ी ही