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: मूकमाटी-मीमांसा
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कवि मिलते-जुलते शब्दों का उपयोग करता हुआ हमें उपदिष्ट करता है :
" अपराधी नहीं बनो / अपरा 'धी' बनो,
'पराधी' नहीं / पराधीन नहीं / परन्तु / अपराधीन बनो !" (पृ. ४७७ )
"हम तो अपराधी हैं / चाहते अपरा 'धी' हैं।" (पृ. ४७४ )
कविवर श्री विद्यासागरजी शब्द - विनोद में ही निपुण नहीं हैं, बल्कि उनकी अंक क्रीड़ा एवं तत्सम्बन्धी ज्ञान भी स्पृहणीय है । ‘मूकमाटी' महाकाव्य के मूल पात्र 'कुम्भ' पर अंकित कतिपय बीजाक्षरों एवं वाक्यों के अतिरिक्त कुछ संख्याएँ भी अंकित हैं :
इसी प्रकार :
इन संख्याओं के सम्बन्ध में जो विशेष रोचक एवं ज्ञातव्य बात है वह यह कि इन्हें एक से नौ तक की किसी भी संख्या से गुणा करें, आए गुणनफल की संख्याओं का एक इकाई तक जोड़ते जाने पर अन्ततः ९ ही होता है, यथा :
१.
२.
३.
४.
५.
“ ९९ और ९ की संख्या / जो कुम्भ के कर्ण-स्थान पर
आभरण-सी लगती अंकित हैं / अपना-अपना परिचय दे रही हैं।" (पृ. १६६ )
“९९x२=१९८, १+९+८=१८, १+८=९
९९x३=२९७, २+९+७=१८, १+८=९।” (पृ. १६६)
“९x२ =१८, १+८=९
९x३=२७, २+७ =९ ।” (पृ. १६६)
अन्तत:, हम कविवर आचार्य श्री विद्यासागरजी की कुछ अन्य चुटीली उक्तियों को प्रस्तुत करना चाहेंगे, जिनका अर्थ उपयोगी और रंजक भी है, यथा :
" शव में आग लगाना होगा, / और / शिव में राग जगाना होगा ।" (पृ. ८४)
" जल में जनम लेकर भी / जलती रही यह मछली ।" (पृ. ८५)
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'कम बलवाले ही / कम्बलवाले होते हैं ।" (पृ. ९२ )
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"ललाम चाम वाले / वाम - चाल वाले होते हैं।” (पृ. १०१)
" कर्तव्य के क्षेत्र में / कर प्राय: कायर बनता है / और
कर माँगता है कर/ वह भी खुल कर !" (पृ. ११४)
६. "जीवन का, न यापन ही / नयापन है / और / नैयापन !" (पृ. ३८१ )
७. “प्रकृति में वासना का वास ना है ।" (पृ. ३९३)
जैसा कि पहले भी कहा गया है, महान् काव्य ग्रन्थ 'मूकमाटी' के समस्त चमत्कारी शब्द प्रयोगों को यहाँ नहीं लिया जा सकता । किन्तु, जितने स्थलों पर दृष्टि केन्द्रित की गई है उतने से कवि के शब्द ज्ञान एवं प्रयोग नैपुण्य पर यथेच्छ प्रकाश पड़ता है, ऐसी आशा है । इत्यलम् !
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