________________
मूकमाटी-मीमांसा :: 363
की समाप्ति ज्यों ही कुम्भकार की अहिंसक पगतलियों से होती है त्यों ही उसमें एक विद्युत्-सम स्पन्दन होता है । उसकी दृष्टि मात्र गुरु के अतिरिक्त अन्य किसी वस्तु को देखने में असमर्थ है :
“आकाशीय विशाल दृश्य भी / इसीलिए / शून्य होता जा रहा है समीपस्थ इष्ट पर/ दृष्टि टिकने से / अन्य सब लुप्त ही होते हैं ।" (पृ. २६)
माटी में समर्पण के समस्त गुण विद्यमान हैं । कुम्भकार उसे कुदाली से काटता है, वह कटती चली जाती है; वह बोरी में बाँधता है, बँध जाती है; सानता है, सन जाती है; रौंदता है, रुँद जाती है; फिर हर परीक्षण में खरी उतरती हुई क्रमशः ‘श्रावक-श्रमण-धर्म' का पालन करती हुई कर्मों के बन्धन से छूट, पूर्णता प्राप्त कर लेती है। माटी का कुम्भ हाथ में ले सेठ, पात्र के पदों पर ज्यों ही झुका, त्यों ही कन्दर्प - दर्प से दूर गुरु-पद-नख- दर्पण में उसने (कुम्भ) अपनी छवि देखी और धन्य-धन्य कह उठा ।
जैन दर्शन के प्रमुख प्रमेय उत्पाद, व्यय और धौव्य हैं। 'उत्पाद' से तात्पर्य यह है कि सृष्टि में जो कुछ है, वह पहले से ही विद्यमान है तथा जो नहीं है, उससे किसी तत्त्व की उत्पत्ति नहीं हो सकती । 'व्यय' से अभिप्राय है कि प्रत्येक पदार्थ अपने पूर्व रूप को छोड़कर क्षण-क्षण में नवीन पर्यायों को धारण करता है । 'धौव्य' यह विश्वास है कि पदार्थों के रूपान्तर की यह प्रक्रिया सनातन है । उसका कभी भी अवरोध या नाश नहीं होता । जगत् का प्रत्येक सत् प्रतिक्षण परिवर्तित होकर भी कभी नष्ट नहीं होता । वह उत्पाद, व्यय और धौव्य त्रिलक्षण रूप है । कोई भी पदार्थ चेतन हो या अचेतन, इस नियम का अपवाद नहीं है (द्रष्टव्य : संस्कृति के चार अध्याय, पृ. १३३) ।
जैन धर्म यह मानता है कि सृष्टि अनादि है और जिन छ: तत्त्वों से यह बनी है वे तत्त्व भी अनादि हैं- जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश तथा काल । इन छः तत्त्वों में केवल पुद्गल ही ऐसा है जिसे हम स्पर्श, रस, घ्राण, चक्षु, श्रवण इन्द्रियों (पृ. ३२९-३३०) के द्वारा अनुभव कर सकते हैं । पुद्गल को मूर्त द्रव्य भी कहा जाता है। पुद्गल स्वयं ही परमाणु रूप है या परमाणुओं के योग से बना है । यह सारी सृष्टि ही परमाणुओं का समन्वित रूप है ।
भावपक्ष की दृष्टि से दर्शन गहन, व्यापक अर्थबोधक है । मनुष्य चिरकाल से ही 'आनन्द' तत्त्व की खोज में सन्नद्ध रहा है। समय-समय पर बड़े - बड़े तत्त्व चिन्तकों, ज्ञानियों, आचार्यों, ऋषियों, सिद्ध पुरुषों और योगियों ने आनन्द तत्त्व की उपलब्धि, परम पद की प्राप्ति के उपायों पर विचाराभिव्यक्ति तथा अनुभूति प्रदान का मार्गदर्शन किया है । महाकाव्य महत् जीवन दर्शन से अनुप्राणित कृति होती है । समीक्ष्य काव्य में जैन दर्शन का प्रतिपादन हुआ है। जैन धर्म की शिक्षाओं का सार त्रिविध साधना मार्ग में देखा जा सकता है- सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान, सम्यक् चारित्र । ‘सम्यक् दर्शन' से तात्पर्य है (जैन धर्म में ) उपदिष्ट तत्त्वों में दृढ़ विश्वास (पृ. १२-१३ ) । जैन धर्म में व्याख्या से उपलब्ध तत्त्व/पदार्थ का ज्ञान या किसी की सहायता से प्राप्त किए गए ज्ञान को 'सम्यक् ज्ञान' कहा जाता है। माटी का माता धरती से ज्ञानार्जन करना या मछली का माटी से ज्ञान इत्यादि लेना इसी कोटि में आता है । इन नौ में पहला 'जीव' है। 'जीव' शब्द जीवन, ज्ञान, प्राण और आत्मा का वाचक है। जैन मत में जीव (शुद्ध जीव) नित्य, केवल प्रकाशमान् है एवं असीम प्रसन्न रहता है। शरीर में रहता हुआ 'जीव' आत्मा का रूप है । अत: शरीर में विद्यमान होने के कारण अपने कर्मों का फलाफल रूप सुख-दुःख भोगता है। अपने कर्मों के अनुसार दूसरा शरीर धारण करता है। उसे अनन्त पीड़ाएँ सहनी पड़ती हैं, जिनका कोई ओर-छोर नहीं है (पृ. ४) ।
जीव के स्वरूप से विपरीत 'अ - जीव' का स्वरूप है। यह जीवन - शून्य भौतिक तत्त्व है । जीव और अ-जीव का संयोग बन्ध है (पृ. १५) । यह दो रूपों में स्वीकृत है - रूपी - अरूपी । जैन-धर्म-दर्शन में अक्षुण्ण - अखण्ड काल का प्रवाह अरूपी है, अत: इसी कारण उसे अ-जीव की श्रेणी में गिना जाता है। जीव या अ-जीव का बहना-1 - परिणमन
T