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378 :: मूकमाटी-मीमांसा
_____ फिर भी पुरुषार्थ के हाथ में है, रहस्य के घूघट का उद्घाटन।' इस खण्ड में वस्तुत: बौद्धदर्शन एवं सांख्यदर्शन की अवधारणाओं की पुनरावृत्ति कर एकान्तवाद, अनेकान्तवाद एवं स्याद्वादी जैनदर्शन का उल्लेख किया है, क्योंकि कुम्भ पर 'ही' और 'भी' उत्कीर्ण होते हैं :
"'ही' एकान्तवाद का समर्थक है/'भी' अनेकान्त, स्याद्वाद का प्रतीक।" (पृ.१७२) सभी दर्शन समस्याओं के समाधान के लिए अनुसन्धान या शोध करते हैं, उपाय सुझाए जाते हैं, तप की आतप एवं संकल्प-विकल्पों के प्रयोग होते हैं, परन्तु सार्थकता के स्थान पर कोरी सफलता ही हाथ लगती है, क्योंकि “अनन्त में सान्त खो चुका है" (पृ.१७७)। भोग-भोगी, योग-योगी सभी चलते बनते हैं, परन्तु वासना का वास माया से प्रभावित मन में है' (पृ. १८०) । परन्तु 'गुणों से निर्मित व्यक्ति का स्वभाव वैसा का वैसा रहता है, और जो है, वह सब सत् सिद्ध होता है' (पृ. १८५)।
'मूकमाटी' के तीसरे खण्ड का शीर्षक है : 'पुण्य का पालन : पाप-प्रक्षालन ।' इसमें प्राकृतिक व्यापारों को सुकृत कहा गया है । तदनुरूप ही कारण-कार्य व्यापार चलता है, जो कि अनुकरणीय है। 'कुम्भ' रूप मांगलिक प्रतीक की अग्नि परीक्षा होती है । नवकार मन्त्र का उच्चारण होता है । यह मानवीय प्रतीक कुम्भ की संस्क्रिया है, जिससे वह सदाशय और सदाचार के ढाँचे में ढाला जाता है। उसके गुणात्मक विकास के लिए उसके 'स्व' और 'पर' के दोषों को जलाया जाता है । उसे योग-त्याग, कार्य-कारण भाव, आध्यात्मिक दर्शन, संकल्प-विकल्प एवं आत्म-साक्षात्कार में दीक्षित किया जाता है। उसे अवा की ताप-यातना के माध्यम से सूचित किया जाता है कि दुःख आत्मा का स्वभावगत धर्म नहीं है, प्रत्युत उसका चेतन-चित् चमत्कारी परिणामधर्मी रूप में मूल्यांकित होता है। उस पर स्वस्तिक, ओंकार आदि मांगलिक चिह्न अंकित किए जाते हैं। तब कहीं कुम्भ, सेठ की चर्या के लिए अनिवार्यता बन जाता है, जिससे उसे पात्र-दान का लाभ मिल सकता है। मांगलिक कुम्भ के चयन में सेठ का एक गुण जिसे 'विवेक' कहा गया है, उभरता है और उसका पुण्य परिपाक होता है, तन-मन-वचन शुद्ध होते हैं, नवधा भक्ति का प्रतिष्ठापन एवं गुरु-पद में अनुराग होता है और इन्द्रियों की विषयी-विषय की वासना का प्रशमन होता है, जिसे श्रमण की 'अग्निशामक वृत्ति' का नाम दिया गया है। इस पाप-पुण्य के 'विवेक' की अवस्था को मानवीय प्रौढ़ अवस्था का प्रतिमान माना गया है, जहाँ वह भेद की ओर से 'अभेद' की ओर अभिगमन करता है।
___ खण्ड चार का शीर्षक है : अग्नि की परीक्षा : चाँदी-सी राख।' इस खण्ड को इतना विस्तार देने की आवश्यकता नहीं थी (पृ.२६९ से ४८८) क्योंकि इसमें पिष्ट -पेषण ही किया गया है। पुरुष और प्रकृति में क्रियाएँ-प्रतिक्रियाएँ होती हैं। प्रकृति में वासना का अभाव ही विकृत-वेषी पुरुष को आवेश से छुड़ाकर स्ववश में करता है (पृ. ३९३) । पुरुष यदि पाप-पुण्य का खेल खेलता है तो प्रकृति के खिलौने से। “प्रकृति का प्रेम पाये बिना/पुरुष का पुरुषार्थ फलता नहीं" (पृ. ३९५)। यही सूत्र सेठ के रोग का निदान बनता है- “माटी, पानी और हवा/सौ रोगों की एक दवा"(पृ.३९९)। फिर भी “सिद्धान्त अपना नहीं हो सकता/सिद्धान्त को अपना सकते हम" (पृ. ४१५)।
मूकमाटी से निर्मित मांगलिक-कलश की प्रतिष्ठा को अपनी अवहेलना मानकर स्वर्ण कलश' आतंकवाद को आमन्त्रित एवं प्रत्यारोपित करता है, क्योंकि अतिपोषण और अतिशोषण का यही परिणाम होता है । इससे अन्य असन्तुष्ट दलों का निर्माण होता है, परन्तु सहयोग, समर्थन की स्वीकृति नहीं मिलती । आतंकवाद का सामाजिक दिग्गजों से सामना होता है। प्रशासक उद्दण्डता दूर करने के लिए दण्ड-संहिताओं का विधान करते हैं। परन्तु लेखनी क्रूर अपराधी को भी करता से दण्डित करने को अन्याय एवं अपराध मानती है (पृ. ४३१) । आतंकवादी का बल शनैः-शनैः स्वयं क्षीण होता है, संहार का स्थान संघर्ष ले लेता है, जिससे उत्कर्ष होता है। आतंकवाद अपनी निन्दा की नियति को