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मूकमाटी-मीमांसा :: 373 अस्तित्व को धरते चला जाता है । और उसके निमित्त बनने, बनाने वाले अपने स्वरूप में प्रकट होने लगते हैं । सम्पूर्ण रचना चिन्तन और अध्यात्म का समन्वय बन कर सामने आ जाती है। दर्शन की अभिव्यक्ति में उपादान - निमित्त, ईश्वर कर्तृत्व, ईश्वरता, परमात्मा, श्रमण भाव, साधना तत्त्व आदि स्वरूप इसमें उद्घाटित होते चले गए हैं । जहाँ ये स्वरूप उद्घाटित हुए हैं, वहीं कुम्भकार ने विभिन्न पात्रों के बीच धरति माँ, कंकर, चेतना, मछली, कूप, बालटी, प्रकृति, जल, काँटा, फूल, लेखनी, समुद्र, सूर्य, राहु, इन्द्र, बबूल, सेठ, सेवक, मच्छर, मत्कुण, गज, महामत्स्य, आतंकवाद के माध्यम से उन्होंने अपने विचारों को प्रतिपादित किया है। क्षमा और अहंकार रहित जीवन ज्ञानी को और ध्यानी को बराबर प्रभावित करता चला जाता है । वह प्रकृति के बिन्दु रूप से विशाल प्रकृति के महत्त्व को चीन्हते चलता है, जिसके क्रम से वह पूर्ण परिचित है । तभी वह कहता
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" सत्ता शाश्वत होती है, बेटा !/ प्रति- सत्ता में होती हैं / अनगिन सम्भावनायें उत्थान - पतन की, / खसखस के दाने - सा / बहुत छोटा होता है बड़ का बीज वह ! / समुचित क्षेत्र में उसका वपन हो समयोचित खाद, हवा, जल / उसे मिलें
अंकुरित हो, कुछ ही दिनों में / विशाल काय धारण कर
वट के रूप में अवतार लेता है, / यही इसकी महत्ता है ।" (पृ. ७)
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प्रकृति की सत्ता के महत्त्व को, उसकी चिरन्तन महत्ता पर, वह विचारकर यह स्वीकार करता है कि वह शक्तिमान् पूरी तरह से भास्वर होता है । उसी के अस्तित्व से उसकी सम्पूर्णता का बोध होता है। माटी का अस्तित्व ही सृजन की प्रक्रिया से जुड़ा हुआ है। माटी का अभाव कुम्भकार के लिए भी कठिनाई बन सकता है। माटी ही गढ़न का वह पदार्थ है, जीवन का वह स्वरूप है जहाँ रचनात्मकता का जन्म होता है। सृजनात्मकता का पर्याय माटी, वह भी मूक | यह मूकता अपार सहनशीलता का सन्दर्भ देती है, कुछ भी कठोर सहने की इयत्ता के बाद मौन बने रहना ही जीवन की ऊँचाइयों की ओर चाहे ज्ञानी बन कर हो, चाहे ध्यानी बनकर हो सम्भव हो जाता है। आचार्यजी ने अपनी संवेदना को सृजन की परिधि में रोपा है, जहाँ बिन्दु से विराट् का स्वरूप उभरने लगता है । कवि एक ओर जीवन की गहरी संवेदनाओं का वाहक है तो दूसरी ओर जैन धर्म की महत्ता के अनुरूप उसके दर्शन के प्रतिपाद्य का वह आकलनकर्ता है । यह आकलन बौद्धिक दुरूहताओं में दिखाई नहीं पड़ता, वरन् वह सहज ही प्रतीकों की अभिव्यक्ति के माध्यम से कविता में उभरता चला जाता है। यहाँ कवि की जीवन और दर्शन की गहराइयों का संस्पर्श जिस ढंग से मुखरित हुआ है, वहाँ माटी उपादान बनकर अपनी महत्ता को अन्ततः प्रतिपादित करती चली जाती है ।
मूक की अभिव्यक्ति में सम्पूर्ण काव्य अर्थ गर्भित हो उठा है। माटी का उपादान कुम्भकार के निकट अपने महत्त्व को प्रथम भाग में दर्शाने लगता है, उसका संसर्ग रचनात्मक दायित्व का परिबोध देने लगता है । जीवन में अहं किसी भी दर्शन में हितप्रद नहीं कहा गया है। वह जीवन के उत्कर्ष का अवरोधक है। तू ही अपने को समझता न रह, एक दिन एक क्षण ऐसा आएगा कि तू मुझे मूक, दीन समझकर रौंदता है, मैं भी तुझे रौंद सकती हूँ- कबीर भी इसी सत्य का परिबोध दे गए हैं। द्वितीय भाग में इसी अहं के पर्यवसान के बाद समर्पित हो जाने वाली स्थितियों का अर्थगर्भित विवेचन है । तृतीय भाग समर्पण के सामने आगत विविध परीक्षाओं से जुड़ा हुआ है। और चौथे भाग में वर्गातीत अपवर्ग
मीमांसा ही इस महाकाव्य की व्याप्ति बन गया है। इन चारों खण्डों की प्रतीकात्मकता पुरुषार्थ चतुष्टय तथा चतुराश्रम व्यवस्था के ही वाहक होकर आए हैं। जीवन की विभिन्न स्थितियों के प्रतिबिम्ब प्रकृति में जहाँ उसे बिम्बित