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मूकमाटी-मीमांसा :: 375 बताती है, और कुछ भी बोलती बताती नहीं, उसका मौन होना ही, पहचान के दरवाज़ों पर दस्तकें देने लगता है । वहाँ प्रकृति के सौन्दर्य के साथ, उसकी क्षमा और सहनशीलता को कवि बखूबी विश्लेषित करता चला गया है। दया और प्रेम उसके कण-कण में उपलब्ध है। किसी को भी दुखी देख द्रवित हो उठती है। गदहे की पीठ पर रखे जाने, उसकी पीठ पर खुरदुरापन खरोंचन की बात उसके निकट करुणा को झकझोर जाती है । गदहा सामाजिक हित में कल्याण भावना से जुड़ा होता है । वह पर- दुखकातर है, अतः हर किसी के दुख-दर्द को ढोता रहता है ।
“गद का अर्थ है रोग/हा का अर्थ है हारक/ मैं सबके रोगों का हन्ता बनूँ ... बस, / और कुछ वांछा नहीं / गद - हा गदहा ..!" (पृ. ४० )
श्रमण के निकट इसी पर दुखकातर की भावना का विन्यास हमेशा बना होता है। जिसे कवि ने बड़ी सहजता से, जीवन की व्यावहारिकता के बीच खोजा है, उपस्थित किया है। इस महाकाव्य में जीवन को समझने के लिए जिस सहजता को कुशलता के साथ उपस्थित किया गया है, उसमें कवि का लोक चिन्तन भी जुड़ा है, जो ऐसी अभिव्यक्तियों को एक सार्थकता देता है ।
रसों की विवेचना में मनोवैज्ञानिक दृष्टि भी बनी हुई है। इसमें कवि रसों के माध्यम से द्वि-अर्थी स्वरूप रखता चला जाता है । जैसे करुण रस, वेदना से विगलित क्षण जहाँ जुड़े हैं वहीं वह श्रमण के निकट करुण जीवन का प्राण है। वैसे ही वात्सल्य शिशुमन की छटा से जहाँ जुड़ा है, वहीं वह किसी को भी शिशु क्रीड़ाओं के सामने स्नेह की प्रांजलता से आकण्ठ डुबो देता है।
'आँवाँ' वाले प्रसंग में जीवन को तपने के सन्दर्भों से जोड़ा गया है । कुम्भ जितना तपेगा, यम-नियमों से गुज़रेगा, उतना ही वह निखरेगा और उसकी गरिमा बढ़ेगी। सिंह और श्वान का चित्रण दो परस्पर विरोधी परिस्थितियों
बीच जाने की स्पृहाका संयोजन है। कछुआ और खरगोश का कुम्भ पर अंकित होना साधक और साधना को प्रकट करते हैं। कछुआ की धीमी गति निरन्तर गति का पर्याय बनती है, जो लक्ष्य पर पहुँचता है। खरगोश का तेज़ दौड़ कर रुक जाना, प्रमाद का सूचक है जो साधना में साधक के लिए हितप्रद नहीं है। तृतीय और चतुर्थ खण्ड सम्यक् चारित्र अधिक निकट हैं, जो पुण्य क्रियाओं से विकसित होता चला जाता है । इसी के साथ कवि नारी की महिमा से अभिभूत भी है। वह उसे 'महिला' कहता है। वह जीवन मांगल्य का महोत्सव है। मही पृथ्वी या जननी के प्रति आस्था देती है और पुरुष के लिए मार्गदर्शिका भी ।
ज्ञान के अथाह सागर में बालटी ज्ञान बिन्दुओं को प्राप्त करने का माध्यम बन कर आती है, और मछली व्यक्ति की मिथ्या दृष्टि को, सीमित होने व्यक्त करती है । 'सल्लेखना' की महिमा में वह काया और कषाय के कृष होने वाले स्वरूप को प्रकट करता चला जाता है। सेठ वाला पात्र प्राप्ति और अप्राप्ति के बीच यातना और विभिन्न स्थितियों से गुज़रते हुए, अन्त में परिबोध पाता है। पूरे महाकाव्य में सारे पात्र 'जैन दर्शन' की अभिव्यक्ति को सार्थक करते हैं। यहाँ कवि के शिल्प की प्रशंसा करनी होगी कि उसने अपनी कथा के बहाने 'जैन दर्शन' की तमाम खूबियों को प्रतीकों के माध्यम से उभारते हुए जो कुछ कह गया है, वह चिन्तन युक्त ही निरा नहीं, वरन् रसयुक्त भी है । दार्शनिक इस समता के कारण कहीं मालूम नहीं पड़तीं। वह बड़े ही सहज ढंग से उस सब को बड़ी प्रगल्भता के साथ रख गया। इसी के साथ एक बात और, कवि हिन्दी भाषी नहीं है, वह कर्नाटकी है, लेकिन जिस प्रांजलता के साथ उसने अपनी काव्य की भाषा को प्रवाह दिया है, वह उसे कहीं अहिन्दी भाषी नहीं समझने देती । इसके लिए, इतने सरस, चिन्तनीय महाकाव्य के प्रणयन के लिए वे बधाई के पात्र हैं ।