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304 :: मूकमाटी-मीमांसा
यदि वह सुलभ भी है/तो भारत में नहीं,/महा-भारत में देखो ! भारत में दर्शन स्वारथ का होता है ।" (पृ.८२) । " “वसुधैव कुटुम्बकम्"/इसका आधुनिकीकरण हुआहै / 'वसु' यानी धन-द्रव्य 'धा' यानी धारण करना/आज/धन ही कुटुम्ब बन गया है
धन ही मुकुट बन गया है जीवन का।" (पृ.८२) आज की भारतीय परम्परा एवं समाज पर कवि का कितना गहरा कटाक्ष है। स्वार्थीजन एक-दूसरे की चीरफाड़ में लगे हैं, उछाड़-पछाड़ में पगे हैं, गला एवं जेब काटने में लगे हैं। भाई ही भाई का दुश्मन बन बैठा है। जब एक परिवार में प्रेम नहीं है तो विश्व-प्रेम की बात करना कितना बेमानी है। पुरुष और प्रकृति का संयोग ही आनन्द है:
"पुरुष प्रकृति से/यदि दूर होगा/निश्चित ही वह
विकृति का पूर होगा।” (पृ. ९३) मानवीय मूल्यों की बात भी कवि करता है :
"धन जीवन के लिए/या जीवन धन के लिए ?/मूल्य किसका
तन का या वेतन का,/जड़ का या चेतन का ?" (पृ. १८०) जीवन की सार्थकता चेतन बनने में है, जड़ बनने में नहीं। तन, वेतन, धन आदि सभी चेतनानन्द के लिए हैं। चेतन में गति है। गति है तो जीवन है । अर्थ की आँखों से परमार्थ को कैसे देखा जा सकता है ?
“यह कट-सत्य है कि/अर्थ की आँखें/परमार्थ को देख नहीं सकती,
अर्थ की लिप्सा ने बड़ों-बड़ों को/निर्लज्ज बनाया है।" (पृ. १९२) इन पंक्तियों में कवि ने संसार के यथार्थ रूप को उद्घाटित किया है। चोरी, सीनाजोरी, अनाचार, व्यभिचार, भ्रष्टाचार केवल अर्थ के प्रलोभन के कारण ही तो हैं। अर्थ का आकर्षण अच्छे-अच्छे को पद-दलित कर देता है । माँ की ममता का अत्यन्त दिव्य चित्र कवि ने खींचा है :
"अपने हों या पराये,/भूखे-प्यासे बच्चों को देख
माँ के हृदय में दूध रुक नहीं सकता/बाहर आता ही है उमड़ कर।" (पृ. २०१) स्त्रियों के सम्बन्ध में कवि की धारणा बड़ी पवित्र है। नारी श्रद्धा, प्रेम और आस्था का नाम है । उसे पथ-विहीन करने का श्रेय पुरुष को है :
"प्रायः पुरुषों से बाध्य हो कर ही/कुपथ पर चलना पड़ता है स्त्रियों को परन्तु,/कुपथ-सुपथ की परख करने में
प्रतिष्ठा पाई है स्त्री-समाज ने।” (पृ. २०१-२०२) महिला की कितनी सौम्य परिभाषा कवि करता है :