________________
330 :: मूकमाटी-मीमांसा
कथा कही है।
तृतीय सर्ग का मंगलाचरण आचार पथ से जुड़ा हुआ है । पर-सम्पदा की ओर दृष्टि जाना अज्ञान है और परसम्पदा हरण कर उसका संग्रह करना मोह-मूर्छा का अतिरेक है । सन्तों के पथ की रहस्यमयी चर्चा करते हुए मुनिवरजी कहते हैं कि सर्वसहा होना ही जीवन में सर्वस्व पाना है। इसी पीठिका पर कवि के ये प्रश्न उठते-उभरते हैं और अपना समाधान चाहते हैं :
"क्या सदय-हृदय भी आज/प्रलय का प्यासा बन गया ? क्या तन-संरक्षण हेतु/धर्म ही बेचा जा रहा है ?
क्या धन-संवर्धन हेतु/शर्म ही बेची जा रही है ?" (पृ. २०१) निश्चित ही यह चर्चा-चिन्ता इहलोक की है। हमारे यहाँ एक ऐसी विचित्र मान्यता घर कर गई है कि साधु को इहलोक की चिन्ता नहीं करनी चाहिए। एकान्त सेवन का धर्म भले ही मोक्षमार्ग के लिए उन्नायक सिद्ध होता हो लेकिन धर्म को धारण करने वाला मानता है-"धारणात् धर्म इत्याहु"! तो समूह की चर्चा-चिन्ता से ही उसे जोड़कर देखनापरखना होगा । इसी सन्दर्भ में नारी के नाना रूपों की जो महिमामयी आरती कवि ने उतारी है वह स्वयं कवि की शब्दावली में ही पढ़ना ज़रूरी है (देखें, पृ. २०१-२०८) । नारी के विभिन्न गरिमामय रूपों की सुरम्य झाँकी चित्रित करने वाला कवि का साधक मन कहता है कि अबला के अभाव में सबल पुरुष भी निर्बल बनता है । यह समझ लेने पर ही स्त्री को कुल-परम्परा-संस्कृति का सूत्रधार न बनाने के आग्रही विचार का अचूक आकलन हो सकता है। यह स्वच्छ रूप में परम्परावादी चिन्तन है और वह हमेशा समन्वयी ही होता है । यह कहना एक ही तथ्य को दो शैलियों में कहना
तृतीय सर्ग का समापन करते हुए साधक कवि ने समझाया है कि साधक की अन्तर-दृष्टि में जल और ज्वलनशील अनल में अन्तर शेष रहता ही नहीं। साधना की यात्रा निरन्तर भेद से अभेद की ओर, वेद से अवेद की ओर बढ़नी ही चाहिए, क्योंकि यात्रा का नाम ही निरन्तरता है । यात्रा का अर्थ अरुक-अथक चलना ही तो है।
'मूकमाटी' का अन्तिम सर्ग अपने आप में सर्वथा स्वतन्त्र स्थान, माहात्म्य तथा गरिमा रखने वाला है। इसका मंगलाचरण 'संयमः खलु जीवनम्' का काव्यात्मक उद्घोष करता है :
“नियम-संयम के सम्मुख/असंयम ही नहीं, यम भी
अपने घुटने टेक देता है,/हार स्वीकारना होती है।” (पृ. २६९) इस संयमी जीवन की पहचान है अपने आप को परखना, अपनी परीक्षा लेना, क्योंकि परीक्षक बनने से पूर्व परीक्षा में पास होना अनिवार्य है, अन्यथा वह उपहास का पात्र बनेगा :
“ 'स्व' यानी सम्पदा है,/स्व ही विधि का विधान है
___स्व ही निधि-निधान है/स्व की उपलब्धि ही सर्वोपलब्धि है।" (पृ. ३४०) साधक कवि पुरुषार्थ और आशावाद के साथ आशीर्वाद की भी कामना करते हैं। वे अपने में लीन होने को 'नियति' मानते हैं। आत्मा को छोड़कर सभी पदार्थों को विस्मृत करना ही सही पुरुषार्थ' समझते हैं। इसी सन्दर्भ में प्राणिमात्र के धर्म को समझाते हुए कवि कहते हैं कि अपनाना अपनत्व प्रदान करता है और अपने से भी प्रथम पर को समझना सभ्यता है । नीच को ऊपर उठाया जा सकता है । उचित सम्पर्क से सब में परिवर्तन सम्भव है । ऊर्ध्वमुखी