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पण्डित विष्णुकान्त शुक्ल
कविता में अलंकार सौन्दर्य की वृद्धि के हेतु माने जाते हैं । " उत्कर्षहेतवः प्रोक्ता गुणालंकाररीतयः " के अनुसार गुण-अलंकार एवं रीति काव्य में रसोत्कर्ष के हेतु हैं। 'मूकमाटी' में शब्दालंकार एवं अर्थालंकारों का समुचित निवेश द्रष्टव्य है । अलंकारों की अनायास शोभा ने काव्य को स्पृहणीय बना दिया है । कुछ उदाहरण प्रस्तुत हैं :
अनुप्रास :
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'मूकमाटी' में अलंकार
उत्प्रेक्षा :
अनुप्रास
' के अन्य उदाहरणों के लिए द्रष्टव्य हैं पृष्ठ संख्या- १७९, २०९, ३०६, ३१०, ३१२, ३१५, ३४३, ३५६, ३६६, ३८४, ३९८, ३९९, ४२२, ४५१, ४५२, ४६०, ४६६, ४६७, ४७१, ४८४ एवं ४८६ ।
अपह्नुति :
“इन वैभव-हीन भव्यों को / भवों-भवों में / पराभव का अनुभव हुआ । अब, / 'परा - 'भव का अनुभव वह / कब होगा ?...
सम्भव है या नहीं / निकट भविष्य में ?" (पृ. ३७१-३७२)
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'आस्था से वास्ता होने पर / रास्ता स्वयं शास्ता होकर
सम्बोधित करता साधक को / साथी बन साथ देता है । " (पृ. ९)
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अपह्नुति अलंकार अन्यत्र भी द्रष्टव्य हैं, देखें पृष्ठ संख्या- ३७९, ३८५, ४२४ ।
उपमा :
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" सरिता - तट में / फेन का बहाना है / दधि छलकता है / मंगल - जनिका हँसमुख कलशी / हाथ में लेकर / खड़े हैं / सरिता - तट वह " और देखो ना ! / तृण-बिन्दुओं के मिष / उल्लासवती सरिता- सी धरती के कोमल केन्द्र में / करुणा की उमड़न है।" (पृ. २० )
" अबला बालायें सब / तरला तारायें अब / छाया की भाँति अपने पतिदेव / चन्द्रमा के पीछे-पीछे हो / छुपी जा रहीं ।" (पृ. २) "चन्दन तरु- लिपटी नागिन-सी !” (पृ. १३० )
उपमा अलंकार के लिए पृष्ठ संख्या द्रष्टव्य हैं - ७, ५३, १३१, १८०, १९२, १९९, २०८, २१२, २२८, २३८, २४३, २६५, २७३, २८०, २९६, २९७, ३००, ३३१, ३३४, ३४०, ३४५, ३४८, ३४९, ३५०, ३५१, ३५५, ३५६, ३६३, ३६९, ३७४, ३७६, ३८३, ३८८, ३९५, ४११, ४१७, ४२७, ४२८, ४३९, ४४०, ४५५, ४६६, ४६७, ४७१, ४७७ एवं ४७९ ।
" और वह दृश्य / ऐसा प्रतीत हो रहा है, कि / स्वर्गों से बरसाई गई परिमल - पारिजात पुष्प- पाँखुरियाँ ही / मंगल मुस्कान बिखेरतीं
नीचे उतर रही हों, धीरे-धीरे ! / देवों से धरती का स्वागत अभिनन्दन ज्यों ।
...
ओलों को कुछ पीड़ा न हो, / यूँ विचार कर ही मानो / उन्हें मस्तक पर लेकर ऐसा लग रहा, कि / हनूमान अपने सर पर (पृ. २५० - २५१)
उड़ रहे हैं भू-कण ! / सो हिमालय ले उड़ रहा हो !”