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मूकमाटी-मीमांसा :: 307
मैथिलीशरण गुप्त का ‘मंगल घट' लोक संग्रह में अपनी सार्थकता मानता है कि वह जन-जन को शीतल जल प्रदान करेगा, उसकी तृषा हरेगा :"मर घर-घर घर आऊँ।" वहाँ भी माटी की साधना की कठोर प्रक्रिया से गुज़रना पड़ता है :
"खुले खेत से लाकर छान /जल दूँ सार मिलाकर सानूं,
सनूँ स्वेद में किन्तु न मानें ।" वहाँ भी कवि धरती माता की तरह बेटे को सम्बोधित करता है : “क्लेशों से न कलपना होगा।" तभी मंगल घट बन पाएगा।
इस कृति में कवि अत्यन्त सूक्ष्मता से एक-एक स्थिति का अनुशीलन करते हैं। उसमें भावन करते हैं । इस कृति के मंगल घट की सार्थकता गुरु के पाद-प्रक्षालन में है, जो काव्य के पात्र की श्रद्धा के आधार स्तम्भ हैं :
"शरण, चरण हैं आपके,/तारण-तरण जहाज,
भव-दधि तट तक ले चलो/करुणाकर गुरुराज!" (पृ. ३२५) किन्तु गुरु के अन्तिम नायक हैं अर्हन्त देव ।
महाकाव्य का चार खण्डों में विभाजन विवेक सम्मत है । ये साधना के चार सोपान हैं और उनकी अन्तरंगता में कवि गहरे उतरते गए हैं। उनकी अनुभूति सार्वजनीन, सार्वभौमिक इसलिए हो जाती है कि उनके पास जितना गहन शास्त्रीय आधार है, उससे अधिक गहन अनुभूति की सम्पन्नता है । वे कबीर की तरह 'लिखा लिखी की है नहीं, देखा देखी की बात' करते हैं। प्रथम खण्ड 'संकर नहीं : वर्ण-लाभ' की सार्थकता का प्रसंग मिट्टी-कंकर के साथ रहने के प्रसंग में आया है । संकर दोष के निवारणार्थ ही कंकर कोष का वारण करना पड़ता है (पृ.४६) । वर्णलाभ को अभिधात्मक अर्थ रंग पाना, जाति पाना है, पर दर्शन के क्षेत्र में इसका तात्त्विक अर्थ व्यापक उद्देश्य में रूपान्तरण है :
"नीर का क्षीर बनना ही/वर्ण-लाभ है,/वरदान है।
और/क्षीर का फट जाना ही/वर्ण-संकर है/अभिशाप है।" (पृ. ४९) इसके साथ-साथ आचार्यश्री धर्म के गुह्य, गम्भीर तत्त्वों का निरूपण भी करते जाते हैं :
"सल्लेखना, यानी/काय और कषाय को/कृश करना होता है, बेटा ! काया को कृश करने से/कषाय का दम घुटता है,/ "घुटना ही चाहिए।
और/काया को मिटाना नहीं,/मिटती-काया में/मिलती-माया में म्लान-मुखी और मुदित-मुखी/नहीं होना ही/सही सल्लेखना है, अन्यथा
आतम का धन लुटता है, बेटा!" (पृ. ८७) खण्ड दो शब्द सो बोध नहीं : बोध सो शोध नहीं' में शब्द - बोध - शोध का आध्यात्मिक विवेचन, अनुशीलन हुआ है। 'काव्यादर्श' में आचार्य दण्डी ने शब्द को ज्योति कहा है :
"इदमन्धतमः कृत्स्नं जायते भुवनत्रयम् । यदि शब्दाह्वयं ज्योतिरासंसारं न दीप्यते ॥"