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मूकमाटी-मीमांसा :: 289
यदि मेघ से छूटी जल-धारा इक्षु का आश्रय पा मिश्री बन जाती है तो वही नीम की जड़ में जाकर वह कटुता भी धारण कर लेती है । इसीलिए :
एक भिन्न पद्धति से भी इस शब्द को कवि ने दुर्जनों की वाणी के लिए सिद्ध किया है। 'वैखरी' शब्द के मध्य 'ख' है । 'ख' का अर्थ होता है - शून्य । इसलिए इसे निकाल दें तो शब्द बनता है- 'वैरी' । अब कवि कहता है : "दुर्जनों की वाणी वह, / स्व और पर के लिए वैरी का ही काम करती है।" (पृ. ४०४)
" दुर्जन- मुख से निकली वाणी/ 'वै' यानी निश्चय से
'खली' यानी धूर्ता - पापिनी है, / सारहीना विपदा - प्रदायिनी ।" (पृ. ४०३)
यह बात सदा से ही अनुभव की जाती रही है कि पद या प्रतिष्ठा प्राप्त करने की आकांक्षा अनेक पापों की मूल है। आधुनिक जीवन में भी यही बात देखी जाती है । उच्च पद प्राप्त करने के लिए कितनों के प्राप्तव्य छीन लेना, उत्कोचादि अपवित्र साधनों का आश्रय लेना और विविध प्रकार के अन्य अत्याचार- पापाचार करना पदलोलुपों के लिए साधारण-सी बातें होती हैं। 'पद' शब्द का अनेक तरह से प्रयोग करते हुए कवि ने इसी बात का कथन किया है :
प्रस्तुत काव्य-ग्रन्थ में 'धरती' शब्द की कुशल व्याख्या भी देखने योग्य है । इस शब्द का विलोम रूप प्रस्तुत कर अर्थ - निष्पादन किया गया है :
“पदवाले ही पदोपलब्धि हेतु / पर को पद- दलित करते हैं, / पाप- पाखण्ड करते हैं प्रभु से प्रार्थना है कि / अपद ही बने रहें हम !" (पृ. ४३४)
यहीं कवि का कथन है कि 'ध' के स्थान पर 'थ' का प्रयोग कर दें तो 'तीरथ' शब्द बन जाता है- 'शरणागत को तारे सो." तीरथ ।' 'धरणी' शब्द को भी अपने विलोम रूप से कवि ने यूँ कहते बतलाया है :
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"घ" र" ती तीरध/ यानी, / जो तीर को धारण करती है
या शरणागत को/ तीर पर धरती है/ वही धरती कहलाती है।” (पृ. ४५२)
इसी प्रकार :
लोग एक-दूसरे की सहायता या मदद लेते ही हैं। एक-दूसरे को मदद देते भी हैं किन्तु कवि वर्णों के प्रयोग चातुर्य से सचेत करता है :
" मित्रों से मिली मदद / यथार्थ में मदद होती है ।" (पृ. ४५९)
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"धरणी नीरध / नीर को धारण करे सो धरणी
...
नीर का पालन करे सो धरणी !" (पृ. ४५३)
शब्दों की थोड़ी-सी तोड़-मरोड़ से कवि को कैसी व्यंग्योक्तियाँ सूझती हैं, देखें :
'आस्था कहाँ है समाजवाद में तुम्हारी ? / सबसे आगे मैं समाज बाद में !" (पृ. ४६१)