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288 :: मूकमाटी-मीमांसा
किन्तु, विलोम भाव से/यानी/ता"म"स स"म"ता"।" (पृ. २८४) यहाँ कवि को जो अभिलषित है वह समता भाव ही है । तामस से उसका कुछ भी प्रयोजन नहीं किन्तु यह कथन कवि विपरीत गति से चल कर करता है।
'मूकमाटी' के कुम्भ को बजाने पर सरगम निकल पड़ता है । सरगम पर सजी संगीत साधना किसे नहीं भाती! कौन है जो संगीत की माधुरी में अलौकिक आनन्द की अनुभूति नहीं करता । दार्शनिकों के अनुसार 'आत्मा' का स्वभाव धर्म दुःख नहीं है । किन्तु, सरगम की अनूठी व्याख्या तो कविवर विद्यासागरजी ही करते हैं :
"सारे "ग"म यानी/सभी प्रकार के दुःख प"ध यानी ! पद-स्वभाव/और/नि यानी नहीं,
दुःख आत्मा का स्वभाव-धर्म नहीं हो सकता।" (पृ. ३०५) एक स्थान पर कविवर का भाव इस प्रकार व्यक्त हुआ है- पूज्य चरणों का सम्पर्क पाकर तुच्छ रज भी पूज्य बन जाती है वरन् उसमें भला कौन-सी पूज्यता है ! चरण भी पूज्य कौन होते हैं - वे 'जिनकी पूजा आँखें करती हैं।' पूज्य चरणों की उपेक्षा करने वाली आँखें दुःख पाती हैं, ऐसा उपदेश तो स्वयं चरण शब्द ही दो प्रकार से कर रहा है, पहले तो सीधे-सीधे, फिर विलोमतः "चरण को छोड़ कर/कहीं अन्यत्र कभी भी/चर न ! चर न !! चर न !!!"
(पृ. ३५९) "च"र"ण नर'च""/चरण को छोड़ कर
कहीं अन्यत्र कभी भी/न रच ! न रच !! न रच !!!" (पृ. ३५९) श, स, ष-इन तीनों ऊष्म ध्वनियों को कवि ने बीजाक्षर कहा है । इस 'शकार-त्रय' ने स्वयं अपना परिचय दिया है । 'श' 'कषाय का शमन करने वाला, शंकर का द्योतक, शंकातीत, शाश्वत शान्ति की शाला' है । ऊष्म व्यंजन 'स' 'समग्र का साथी' कहा गया है जिसमें समष्टि समाती' है और जो ‘सहज सुख का साधन' और 'समता का अजस्र स्रोत' है। हाँ, ष' की लीला निराली है । यह 'प' के पेट को फाड़कर बनाया जाता है। 'प' 'पाप और पुण्य' का प्रतीक है। पाप और पुण्य का परिणाम संसार है :
"जिसमें भ्रमित हो पुरुष भटकता है/इसीलिए जो
पुण्यापुण्य के पेट को फाड़ता है/'ष' होता है कर्मातीत ।" (पृ. ३९८) 'मूकमाटी' में कवि ने अधिकांश शब्द-क्रीड़ा शब्दों की भिन्न-भिन्न श्रुतियों को लेकर की है तथा उसके विलोम रूप का प्रयोग विनोदार्थ एवं वांछित अर्थ निष्पादनार्थ किया है। किन्तु, एक अक्षर के स्थान पर दूसरा रख देने या बीच के किसी अक्षर को निकल कर नया शब्द रच देने का कार्य भी कवि ने किया है। वैखरी' शब्द को वह भिन्न-भिन्न रीति से सज्जन और दुर्जन दोनों की वाणी कहता है । जैसे मेघ से छूटी जल की धारा इक्षु का आश्रय पाकर मिश्री बन जाती है, वैसे ही :
"सज्जन-मुख से निकली वाणी/'वै' यानी निश्चय से 'खरी' यानी सच्ची है,/सुख-सम्पदा की सम्पादिका।" (पृ. ४०३)