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मूकमाटी-मीमांसा :: 253 महाराज ने 'स्त्री' को सभी परिस्थितियों में पुरुष वर्ग के लिए एक महान् आदर्श के रूप में निरूपित किया है, तथा दोनों की हितकारिणी 'स्त्री' ही है । विभिन्न शब्दों का प्रयोग, जो नारी के लिए किया जाता है, उन सब में उसके मंगलकारी स्वरूप को ही कवि ने अपनी लेखनी से निखारा है, जो आज की अति आधुनिक नारी को पथभ्रष्ट होने से बचाने के लिए अति आवश्यक । अतीत के गर्त में उसके सम-शील-संयम के समा जाने के पूर्व नारी को महाराजश्री की इस एवं उद्धारक रचना का अध्ययन अवश्य कर लेना चाहिए, ताकि आज के समाज एवं युग की स्त्री-पुरुष समानता की माँग को नारी उसके सही अर्थों में समझ सके तथा भारतीय संस्कृति में निरूपित नारी का रूप विकृत एवं लांछनीय न बने ।
आज के समाज में बढ़ते हुए वर्गभेद, जातिभेद, अर्थभेद, वर्णभेद आदि सभी विषयों पर कवि ने निर्भीक होकर अपनी लेखनी एवं बुद्धि का प्रयोग किया है। मानव के बीच से उठते हुए विश्वास एवं भाईचारे के लोप को पुनर्जीवित करने हेतु कवि की रचना का एक-एक शब्द मनन योग्य है, जो कि आज के समाज की ज्वलन्त समस्या बनी हुई है । अपनी रचना में कवि ने भारतीय पद्धति के चिकित्सा शास्त्र पर प्रकाश डालकर धरती माता की विपुल सम्पदा, जो हमें आध्यात्मिक, मानसिक एवं शारीरिक समृद्धि प्रदान करती है, की ओर पुन: लौटने की प्रेरणा दी है । भोजनादि के उचित समय जीवन की दैनिक गतिविधियों को किस प्रकार अनुशासित कर सात्त्विक जीवनयापन किया जाए, इस मंगलसूत्र भी कवि ने हमें दिया है जो पूर्णत: वैज्ञानिक होने के साथ आध्यात्मिक भी है।
भागदौड़ के इस युग में हमारे जीवन से अनुशासन समाप्त होता जा रहा है जो विफल एवं पाश्विक जीवन का द्योतक है । कवि की यह रचना निःसन्देह हम भूले-भटकों के लिए संजीवनी बूटी का काम कर सकती है । केवल आवश्यकता है संयत चित्त एवं एकाग्र मन की । दूसरी महत्त्वपूर्ण बात कवि ने कही है प्रत्येक व्यक्ति अपने कर्मक्षेत्र में रहकर ही मुक्ति पा सकता है । उसके लिए केवल उद्देश्यों की पवित्रता अनिवार्य है । हम देखते हैं कि ये समस्त आध्यात्मिक शब्दावलियाँ सभ्य एवं सुसंस्कृत कहे जाने वाले समाज के लिए अज्ञानता एवं पिछड़ेपन के पर्याय हैं, किन्तु मुझे, तरस आता है ऐसे समाज पर जो स्वयं दयनीय स्थिति में होकर दूसरों की भौतिक दयनीयता पर हँसते हैं ।
भूत परस्ती एवं तन्त्र-मन्त्र, जिसने सामान्य व भोली-भाली जनता को अपने पाश में जकड़ रखा है, इसे भी aad उजागर कर हमें अन्धविश्वास का त्यागकर मन को नियन्त्रित करने की शिक्षा दी है। इन सबसे बढ़कर 'प्रेम' एवं 'प्रार्थना', जो कि मानव जीवन की अनिवार्यता है, को कविश्री ने सर्वोपरि रखा है। ये ही सब धर्मों का मूल मन्त्र है । कवि की समस्त रचना इन मन्त्रों से ओतप्रोत है ।
अन्त में यही कहूँगी कि सन्तवाणी हमारे युग के लिए एक ऐसी भेंट है जिसकी हमें अत्यन्त आवश्यकता है । केवल यही मनोकामना है कि सन्त के आशीर्वाद से उनके प्रवचन को मैं अपने जीवन में उतार सकूँ ताकि मेरे जीवन का अन्तिम लक्ष्य अपनी पूर्णता को प्राप्त हो ।