________________
मूकमाटी-मीमांसा :: 267 स्वयं को ढालना होगा सहर्ष !" (पृ. १०) जैन धर्म ईश्वर (भगवान्) की सत्ता स्वीकार करता है किन्तु उसे सृष्टिकर्ता के रूप में स्वीकार नहीं करता। उसकी मान्यता है कि प्राकृतिक वस्तुओं के पारस्परिक मेल से सृष्टि का क्रम चलता है और उसका उद्देश्य लोककल्याण
"नीर की जाति न्यारी है/क्षीर की जाति न्यारी,/दोनों के परस-रस-रंग भी/परस्पर निरे-निरे हैं/और/यह सर्व-विदित है, फिर भी/यथा-विधि, यथा-निधि/क्षीर में नीर मिलाते ही
नीर क्षीर बन जाता है।" (पृ. ४८) जैन दर्शन में संयम, अहिंसा, सदाचरण आदि का विशेष महत्त्व है। आचार्यजी ने 'मूकमाटी' में इन प्रवृत्तियों के स्वीकरण पर विशेष बल दिया है :
"मेरे स्वामी संयमी हैं/हिंसा से भयभीत, और/अहिंसा ही जीवन है उनका ।/उनका कहना है कि/संयम के बिना आदमी नहीं/यानी/आदमी वही है
जो यथा-योग्य/सही आदमी है।" (पृ. ६४) जैन धर्म के अनुसार पुरुष का प्रकृति में रमना ही मोक्ष है । मोक्ष का यह सिद्धान्त 'मूकमाटी' में प्रदर्शित है :
"पुरुष प्रकृति से/यदि दूर होगा/निश्चित ही वह/विकृति का पूर होगा पुरुष का प्रकृति में रमना ही/मोक्ष है, सार है।/और
अन्यत्र रमना ही/भ्रमना है/मोह है, संसार है"।" (पृ. ९३) धार्मिक वृत्तियों के साथ 'मूकमाटी' में सामाजिक, राजनैतिक, नैतिक, शैक्षणिक आदि सदुपदेश भी भरे पड़े
धर्म और नीति सामाजिक मर्यादा-व्यवस्थापन के आधार-स्तम्भ हैं । नीति धर्म का अंग है । सांसारिक व्यवस्था के संचालन में इसीलिए इन दोनों की महत्ता स्वीकार की गई है। 'मूकमाटी' में आचार्यजी ने अनेक स्थलों पर इन दोनों के विविध पक्षों का सकारात्मक स्वरूप अभिदर्शित किया है। आदर्श और व्यवहार के कार्यात्मक स्वरूप का नाम ही नीति है । ऐसे कतिपय नीतिवचन प्रस्तुत हैं :
"पापी से नहीं/पाप से/पंकज से नहीं,/पंक से/घृणा करो।
अयि आर्य!/नर से/नारायण बनो/समयोचित कर कार्य ।" (पृ. ५०-५१) ० “प्रत्येक व्यवधान का/सावधान होकर/सामना करना
नूतन अवधान को पाना है,/या यों कहें कि
अन्तिम समाधान को पाना है।" (पृ. ७४) उदारता और सहिष्णुता नीति का ही अवयव है । नीति-व्यापार में इन दोनों का वर्चस्व सुस्थापित है । ऐसी