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276 :: मूकमाटी-मीमांसा
“तन गौण, चेतन काम्य है" (पृ. ३१०); " पात्र की दीनता / निरभिमान दाता में/मान का आविर्माण कराती है" (पृ. ३२०); “श्रमण का शृंगार ही / समता - साम्य है” (पृ. ३३०); सन्त समता के धनी होते हैं तो दाता सज्जन ममता की खनी होता है। "भोग ही तो रोग है” (पृ.३५३); "वृद्धावस्था में ढाका-मलमल भी / भार लगती है” (पृ. ३५३); “वैराग्य की दशा में / स्वागत - आभार भी / भार लगता है " (पृ. ३५३); " श्रम से प्रीति करो" (पृ. ३५५); “एक के प्रति राग करना ही/ दूसरों के प्रति द्वेष सिद्ध करता है” (पृ. ३६३); "प्रकृति से विपरीत चलना / साधना की रीत नहीं है” (पृ. ३९१), "" भीति बिना प्रीति नहीं... / और / रीति बिना गीत नहीं" (पृ. ३९१); " 'स्व' को स्व के रूप में/'पर' को पर के रूप में / जानना ही सही ज्ञान है, / और / 'स्व' में रमण करना / सही ज्ञान का 'फल' (पृ. ३७५) ।
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उपर्युक्त सिद्धान्तों के अतिरिक्त विद्यासागरजी ने कुछ सिद्धान्तों का आधुनिकीकरण करते हुए उन्हें नई व्याख्याएँ प्रदान की हैं । आज का जीवन आस्थाहीन है, भौतिकवादी है। चूँकि जीवन में आस्था का महत्त्व है । अत: 'मूकमाटी' का रचयिता धरती के माध्यम से 'माटी' को आस्थावान् होने का पाठ पढ़ाता है। आस्था ही जीवन है। आस्था रही तो पद दलित माटी जीवन में नया रूप धारण कर सकती है। आस्था के साथ-साथ समर्पण भाव होना आवश्यक है । तभी आस्था जीवन को स्वर्णिम बना सकती है। माटी अचेतन होते हुए भी उसमें चेतना डालने का काम श्रमिक करते हैं अर्थात् अनास्थावान् में आस्था डाली जा सकती है। यह बहुत महत्त्वपूर्ण सन्देश है मुनिवर का आज के युग के लिए । “वसुधैव कुटुम्बकम्” (पृ. ८२) का दृष्टिकोण कि सारी वसुधा ही हमारा कुटुम्ब है, अब समाप्त हो गया है। अत: उसका आधुनिकीकरण रूप नया अर्थ प्रस्तुत किया है स्वामीजी ने- “वसु यानी धन-द्रव्य / और/धा यानी धारण करना/ आज/धन ही कुटुम्ब बन गया है/ धन ही मुकुट बन गया जीवन का "। (पृ. ८२) । इस नवीन व्याख्या के समान ही आज सम्पूर्ण समाज चल रहा है। यह दशा अत्यन्त शोचनीय है भविष्य की दृष्टि से ।
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सत् युग और कलियुग की भी नई व्याख्या की है विद्यासागरजी ने । सत् की खोज में लगी दृष्टि ही सत् युग है और असत् विषयों में आकण्ठ डूबी हुई, सत् को असत् माननेवाली दृष्टि स्वयं कलियुग है । कलियुग की आँखों में हमेशा भ्रान्ति रहती है जबकि सत्युग की आँखों में शान्ति का मानस लहराता है। कलियुग व्यष्टि पोषक है, सत्युग समष्टि पोषक है। कलियुग कान्तिमुक्त शव है, सत्युग कान्तियुक्त शिव है। ज्ञान क्या है, इसके सम्बन्ध में स्वामीजी के विचार हैं कि ज्ञान एक पका हुआ फल है। अच्छा-बुरा अपना मन ही होता है। अतः मन पर ही लगाम लगाना आवश्यक होता है । स्त्री जाति के सम्बन्ध में विचार व्यक्त करते हुए आपने कहा है कि वे पुरुष के सम्मुख आदर्श रूप होती हैं। परतन्त्र होकर भी पापिनी नहीं होतीं। पुरुष ही जब बाध्य करता है तभी वे कुपथगामिनी होती हैं। उन्होंने 'स्त्री' (पृ. २०५), 'महिला' (पृ. २०२), 'नारी' (पृ. २०२) और 'अबला' (पृ. २०३) आदि शब्दों की व्याख्या भी की है । आपने कुमारी, दुहिता, सुता - इन शब्दों का महत्त्व भी प्रतिपादित किया है। 'जब तक यहाँ 'कुमारी' रहेगी, धरा सम्पदासम्पन्ना रहेगी । कुमारियों को सन्तों ने प्राथमिक मंगल माना है' (पृ. २०४) । 'सुता' यानी सुख-सुविधाओं का स्रोत है और 'दुहिता' में दो हित निहित हैं- स्वयं का हित और पर का हित । यानी स्वयं के हित के साथ-साथ पतित से पति पति का भी वह हित देखती है (पृ. २०५) ।
दर्शन जैसे कठिन विषय को 'मूकमाटी' में बहुत ही सरल शब्दों में स्पष्ट किया है। दर्शन और अध्यात्म क्या है ? दर्शन का स्रोत मस्तक है, हृदय से अध्यात्म का झरना झरता है । अध्यात्म को जानने के लिए अध्यात्म के सरोवर में गहरी डुबकी लगानी पड़ती है। साधक का बहिर्जगत् से सम्बन्ध टूट जाता है। जो साधक संसार के जाल को तोड़ डालते हैं, वे आत्मविज्ञ कहलाते हैं, स्थितप्रज्ञ कहलाते हैं । " अपने में लीन होना ही नियति है" (पृ. ३४९); “आत्मा को छोड़कर / सब पदार्थों को विस्मृत करना ही / सही पुरुषार्थ है” (पृ. ३४९) । स्वस्तिक का चिह्न पवित्रता का सूचक होता है । विद्यासागरजी की व्याख्या के अनुसार स्वस्तिक की चार पाँखुड़ियों जीवन की चार गतियाँ हैं । उन पाँखुड़ियों पर