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मूकमाटी-मीमांसा :: 279
है कि पात्र की दीनता निरभिमान दाता में मान का आविर्माण कराती है 'कंकर' लघुता का, अहंयुक्त मानव का प्रतीक है। इन्हीं के लिए माटी का सन्देश है कि यदि हीरा बनना है तो संयमी बनना होगा। 'माटी' उन मनुष्यों का प्रतीक है जो लघुता को छोड़कर गुरुता का पद सम्भालते हैं। इनको विकसित करना ही समाज को बढ़ाना है। 'माटी' ज्ञान का भी प्रतीक है। यही माटी इस सम्पूर्ण महाकाव्य की 'नायिका' है। कदाचित् इसे ही 'नायक' भी कह सकते हैं, क्योंकि सारा काव्य इसी माटी के इर्दगिर्द घूमता है । मूक होते हुए भी इसी की वाणी मुखर है। यही हमें ज्ञान देती है। ये सन्देश देती है विभिन्न-विभिन्न प्रकार से या यों कहें कि माटी को निमित्त बनाकर ही विद्यासागरजी समाज को सन्देश देना चाहते हैं। 'गाँठ' हिंसा का प्रतीक है। 'काँटे' दुष्टों के प्रतीक हैं। 'मछली' उन मनुष्यों की प्रतीक है जो जन्म लेकर जलते रहते हैं। 'पानी' अज्ञान का प्रतीक है। 'दलदल' बदले के भाव का प्रतीक है। लहर' दर्शन का प्रतीक है। 'सरवर' अध्यात्म का प्रतीक है। श्वान' पराधीनता का प्रतीक है । इसी तरह कुछ अंकों को भी प्रतीकों की श्रेणी में ले लिया है, जैसे-६३' - सज्जनता, '३६'- दुर्जनता, '९९'- संसार चक्र , ३६३'- एक-दूसरे के खून के प्यासे का प्रतीक है और इन मनुष्यों का दर्शन आज सहज सुलभ है। 'अग्नि' जिन (आत्मजयी) का प्रतीक है, 'सिंह' राजसी वृत्ति का, 'धरती' सर्वसहा का, 'जलधि' दुर्जनता का, 'सूर्य' सज्जनता का, चन्द्रमा' घूसखोरी का, 'बदली' स्त्री का, 'जलकण' दुष्टता का, 'भूमिकण' सज्जनता का, 'बादल' विघ्न का, 'भ्रमर' सन्त का, 'मयूरपंख' संयम का, 'दीपक' सन्त का और आदर्श गृहस्थ का, 'मशाल' सामाजिक प्राणी का, ‘मच्छर' धनिक का, 'मत्कुण' अच्छाई का प्रतीक है । इस तरह से सागर, धरती, सूरज, चाँद, फूल, पवन, बिजली जैसे पात्रों के माध्यम से भावों का समुचित परिष्कार किया है। वैसे कुछ प्रतीकों पर जैन दर्शन का प्रभाव स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है, जैसे-मयूरपंख, दीपक, धरती आदि।
'मूकमाटी' काव्य में विद्यासागरजी के कुछ विचार खटकते हैं- वे हैं स्त्री सम्बन्धी । एक स्थान पर तो उन्होंने स्त्री को आदर्श बताया है, पुरुष के कारण ही वह कुपथगामनी होती है। किन्तु दूसरे स्थान पर वे यह भी कहते नहीं हिचकते कि कुल परम्परा और संस्कृति का सूत्रधार स्त्री को नहीं बनाना चाहिए। साथ ही यह भी कहते हैं कि स्त्री को गोपनीय कार्य के विषय में विचार विमर्श की भूमिका नहीं बताना चाहिए । हम दोनों में से कौन-सा विचार मानें उनका ? इसी प्रकार सूर्य, जो कि सज्जनता का प्रतीक है, वह स्त्री सम्बन्धी स्वस्थ धारणा रखता है (पृ.२०१-२०८), जबकि इसी खण्ड में सागर जो कि दुर्जनता का प्रतीक है, वह स्त्री सम्बन्धी बुरी भावना को पालता है (पृ.२२४) । अत: हम पाठक इन दोनों में से विद्यासागरजी का विचार कौन सा मानें, यह अस्पष्ट लगता है। इसी तरह 'दुहिता' शब्द का उल्लेख वेदों में आता है जिसका ऐतिहासिक महत्त्व है । दुहिता का अर्थ है दुहनेवाली । इससे यह स्पष्ट होता है कि उस काल में लड़कियाँ गाय दोहन का कार्य करती थीं, किन्तु विद्यासागरजी ने इस शब्द का तोड़-मरोड़ कर अर्थ प्रस्तुत किया है।
सम्पूर्ण कृति में लेखक यही चाहता है कि कृति रहे, संस्कृति रहे असीम वर्षों तक, जागृत-जीवित-अजित । वह कर्ता न रहे विश्व के सामने । वह केवल अहं को नष्ट कर जागृत रहे । विद्यासागरजी की यह कृति निश्चय ही युग की महान् उपलब्धि है, विशेषकर हिन्दी साहित्य की श्री-वृद्धि की दृष्टि से तथा जैन दर्शन को सम्पूर्ण समाज में वितरित करने की दृष्टि से भी।
निशा का अवसाग-- ......"उवाकी शान
टोरही है।
फादर.: