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274 :: मूकमाटी-मीमांसा विकार छोड़ने पर आत्मा ही परमात्मा बन जाता है । अत: धर्म परिभाषा नहीं, प्रयोग है । इसीलिए आत्मार्थी धर्म को जीवन में उतारता है । जैन दर्शन आत्मा की स्वतन्त्रता में विश्वास करता है। सभी आत्माएँ एक समान हैं, न कोई उच्च है और न कोई नीच है। प्रत्येक पदार्थ परिणमनशील है। प्रत्येक आत्मा अपनी गलती पर दु:खी है । प्रत्येक को गलती सुधारने से सुख मिलता है। 'स्व' को नहीं पहचानना सबसे बड़ी गलती है। स्वयं को समझना स्वयं की भूल को सुधारना ही है। स्वयं को जानो, स्वयं को पहचानो, स्वयं में समा जाओ तो भगवान् बन जाओगे । भगवान् जगत् का कर्ता नहीं, वह तो मात्र द्रष्टा है, ज्ञाता है, जो जगत् को जानकर अलिप्त रहे वही भगवान् है । हिंसा, झूठ, चोरी, परिग्रह तथा कुशील- ये पाप भाव हैं। पुण्य और पाप दोनों शरीर को बाँधने वाली बेड़ियाँ हैं । वस्तु का स्वरूप अनेकान्तात्मक है। प्रत्येक वस्तु अनेक गुणों से युक्त होती है । इस शैली में भी' का प्रयोग है, 'ही' का नहीं। 'भी' में समन्वय की सुगन्ध
और 'ही' में हठ की दुर्गन्ध है । दोनों की यथायोग्य आवश्यकता है। 'भी' समन्वय का सूचक है, 'ही' दृढ़ता का। 'भी' बताता है कि वस्तु मात्र उतनी 'ही' नहीं, और 'भी' है। किन्तु 'ही' बताता है कि अन्य कोण से देखने पर वस्तु कुछ और
किन्त जिस कोण से बताई गई है वह ठीक वैसी 'ही' है. शंका की गंजाइश नहीं। अत: 'ही' और 'भी' दोनों कथंचित् पूरक हैं, विरोधी भी। इस प्रकार कृति पर जैन सिद्धान्तों का प्रभाव पूर्णतया विद्यमान है।
'मूकमाटी' एक प्रतीकात्मक महाकाव्य है । इसमें कवि ने विभिन्न प्रतीकों के माध्यम से अपने विचार प्रगट किए हैं जो सहज और स्वाभाविक गति से छोटी-छोटी कहानियों के माध्यम से पाठक को प्रभावित करते हुए आत्मसात् हुए हैं । दर्शन की बात कहते हुए भी कवि की भाषा कहीं भी बोझिल नहीं हुई है।
सम्पूर्ण कृति में कवि प्रतीकों के माध्यम से अपनी बात कहना चाहता है- माटी मूक है, वह वर्ण संकर की प्रतीक है। उसमें दोष व्याप्त हैं। कंकड़ दोषों के प्रतीक हैं, अत: माटी को दोषों से मुक्त करना ही वर्ण-लाभ है। इसलिए कवि कंकड़ हटाकर घड़ा निर्माण करता है माटी से । इस तरह से मिट्टी को उठाकर धरती की छाती पर 'कुम्भ' के रूप में बिठा देता है। दूसरे खण्ड में मिट्टी को खोदने की प्रक्रिया के माध्यम से साहित्य बोध के अनेक सोपान बताए हैं। किन-किन बाधाओं को पार करने पर शब्द ज्ञान होता है। शब्द का अर्थ समझना ही बोध' है और बोध को ही अनुभूति के माध्यम से अभिव्यक्त कर देना 'शोध' है। तृतीय खण्ड में जैन धर्म के अनेक सिद्धान्तों का बड़े सहज ढंग से कहानियों के माध्यम से प्रतिपादन करते हुए मन, वचन, काया की निर्मलता पर प्रकाश डाला है तथा लोक-कल्याण की कामना को पुण्य उपार्जन का साधन माना है। क्रोध, मान, अपमान, माया, लोभ, परिग्रह आदि की भावना ही पाप है। इस खण्ड में अनेक प्रतीकों के माध्यम से चित्र स्पष्ट किया है। पाप-पुण्य की विभाजक रेखा और भी स्पष्ट की है। चतुर्थ खण्ड अग्नि की परीक्षा : चाँदी-सी राख' में अनेक कथा प्रसंगों, प्रतीकों, रूपकों द्वारा सन्त जीवन, अध्यात्म और दर्शन का भेद, आतंकवाद, समाजवाद, साहित्य आदि के सम्बन्ध में अपने विचार व्यक्त किए हैं जो जैन दर्शन से प्रभावित हैं।
चारों खण्डों की संक्षिप्त कथा इस प्रकार है- कुम्भ बनाने के लिए शिल्पी धरती से मिट्टी खोदता है उसे छानकर कंकर अलग करता है तथा पानी मिलाकर मिट्टी को मृदु बनाता है एवं कुम्भों का निर्माण करता है । कच्चे कुम्भों को पकाने के लिए, उसे उपयोगी बनाने के लिए वह अपने लक्ष्य की ओर बढ़ता है । अवा तैयार कर कुम्भ को पकाता है और उसे समाज के उपयोग योग्य बनाता है। उसका शीतल जल परोपकार में सहायक होता है । कुम्भ का सम्पूर्ण जीवन पर' के लिए ही बनाता है शिल्पी । यह शिल्पी कौन है ? स्वयं ईश्वर है या मनुष्य है ? इस प्रक्रिया को हम किस दृष्टि से देखेंगे तथा यह कथा हमारे जीवन को कहाँ ले जाएगी, इत्यादि प्रश्नों का जनक है यह महाकाव्य ।।
कुम्भ निर्माण की कथा लौकिक प्रक्रिया पर आधारित है, किन्तु दर्शन गहन है । मनुष्य स्वयं कुम्भ का प्रतीक है। वह इस संसार में कच्चे घड़े के समान ही आता है अर्थात् संस्कार रहित जन्म होता है उसका । उसे संस्कार युक्त होने के लिए संसार रूपी अवे में पकना होता है । यही उसकी अग्नि परीक्षा है । अग्नि में तपकर तथा अनेक बाधाओं को सहनकर जिस प्रकार कुम्भ दूसरे के लिए उपयोगी, उपकारी होता है उसी प्रकार मनुष्य भी सांसारिक बाधाओं को सहन