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मूकमाटी-मीमांसा :: 257 दिया है । मलूकदास ने भी इसके महत्त्व को स्वीकार किया है । नानक इसे समस्त रोगों और दोषों से मुक्त करने वाला बताते हैं। आचार्य विद्यासागर कहते हैं :
“सम्मामि, खमंतु मे-/क्षमा करता हूँ सबको,/क्षमा चाहता हूँ सबसे, सबसे सदा-सहज बस/मैत्री रहे मेरी !/वैर किससे/क्यों और कब करूं?
यहाँ कोई भी तो नहीं है/संसार-भर में मेरा वैरी!" (पृ. १०५) 'जो आवे सन्तोष धन, सब धन धूलि समान'- सन्तों का आदर्श वाक्य रहा है। उन्होंने कभी भी सोना, चाँदी, हीरा, पन्ना या महल-दुमहलों की सपने में भी कामना नहीं की। उन्होंने इसे सदैव तुच्छ समझा । आचार्य विद्यासागरजी के अनुसार :
"स्वर्ण का मूल्य है/रजत का मूल्य है/कण हो या मन हो प्रति पदार्थ का मूल्य होता ही है,/परन्तु,/धन का अपने आप में मूल्य कुछ भी नहीं है ।/मूल-भूत पदार्थ ही/मूल्यवान होता है। धन कोई मूलभूत वस्तु है ही नहीं/धन का जीवन पराश्रित है पर के लिए है, काल्पनिक !/...धनिक और निर्धन-/ये दोनों वस्तु के सही-सही मूल्य को/स्वप्न में भी नहीं आँक सकते, कारण,/धन-हीन दीन-हीन होता है प्राय:/और/धनिक वह
विषयान्ध, मदाधीन !!" (पृ. ३०७-३०८) 'माटी' को ले सन्तों और दार्शनिकों ने बहुत कुछ कहा है । कुम्भकार मिट्टी को पैरों तले रौंद रहा है। मिट्टी कुम्भकार से कहती है : 'आज तू मुझे रौंद रहा है, कल मैं तुझे रौंदूंगी।' सन्तों की उक्तियों के अनुसार एक दिन यह कंचन काया मिट्टी में ही मिल जाएगी । माटी की मूक ध्वनि को आचार्यश्री ने कान लगा कर सुना और इस महान् महाकाव्य की रचना कर डाली। एक स्थान पर वे यदि माटी का चित्रण दुल्हन-सा करते हैं तो अन्यत्र यह भी लिखते हैं :
"माटी की शालीनता/कुछ देशना देती-सी...! 'महासत्ता-माँ की गवेषणा/समीचीना एषणा/और
संकीर्ण-सत्ता की विरेचना/अवश्य करनी है तुम्हें !" (पृ. ५१) सन्तों के अनुसार भोजन के लालच में तो सिंह भी ठगा जाता है । खानपान पर पालित शरीर का अन्त चिता में हो जाता है । आत्मा का सम्बन्ध स्वादिष्ट आहार से नहीं है । वास्तव में महान् वह है जो रूखा-सूखा खा कर भी दूसरों की भूख मिटाता है । भोजन तो शरीर संचालन का निमित्त मात्र है। कुछ सन्तों ने अँधेरे में भोजन करने का निषेध किया है। नानक ने परिश्रम की रोटी खाने पर बल दिया है। मनुष्य अन्न खाता है और अन्न मनुष्य को, किन्तु दोनों ही अतृप्त। आचार्य विद्यासागरजी की वाणी में जैसे समस्त सन्त वाणी का सार समा गया है :
0 “आधा भोजन कीजिए/दुगुणा पानी पीव ।
तिगुणा श्रम चउगुणी हँसी/वर्ष सवा सौ जीव !" (पृ. १३३) ० "रस का स्वाद उसी रसना को आता है