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मूकमाटी-मीमांसा
की समस्या है। विशेषत: भारत के प्रत्येक भाग में आतंकवाद - अलगाववाद का ही वातावरण व्याप्त है । आचार्य ने इस विकट समस्या का समाधान भी जैन दर्शन के मुख्य सिद्धान्त 'अहिंसा परमो धर्मः' के तहत सुझाया है । इस समाधान की प्रस्तुतिलक्षणात्मक और व्यंजनात्मक पद्धति से कवि ने की है ।
कवि ने स्वावलम्बी होने की सलाह एक अप्रतिम उदाहरण के माध्यम से आज के मानव को दी है। देश में व्याप्त आतंकवाद के कारण आज मानव जीवन चारों ओर से किस प्रकार भयाक्रान्त है और वह किस घुटन में जीने को विवश है, इसकी प्रस्तुति आचार्यवर ने अप्रतिम रूप में की है। साथ ही कवि ने भोजनभट्ट और आत्मज्ञानहीन साधुओं पर भी अपनी कृति के माध्यम से करारी चोट की है। उन्होंने बताया है कि ढोंगी, कपटी, धूर्त लोग साधुवेश धारण क समाज को सदैव ठगते रहे हैं। इस प्रसंग की प्रस्तुति इतने यथार्थ ढंग से होने के पीछे कवि का स्वयं साधक साधु होना प्रतीत होता है, इसीलिए उन्होंने सच्चे साधु के स्वरूप का उद्घाटन भी किया है। आचार्यवर ने प्रस्तुत ग्रन्थ में कलिकाल प्रभावों का भी विशद वर्णन किया है ।
भारतीय गणतन्त्रीय व्यवस्था पर करारी चोट करते हुए आचार्यवर ने बतलाया है कि वर्तमान गणतन्त्रीय न्याय व्यवस्था कलुषित हो गई है। रिश्वतखोरी और अर्थलिप्सा के कारण अपराधवृत्ति बलवती और सशक्त हो गई है। कारावास अपराधियों के लिए प्रशिक्षण केन्द्र भर बनकर रह गया है। उनकी हिंसक मनोवृत्ति वहाँ अत्यधिक प्रशिक्षित होती है ।
इस प्रकार की विषम अवस्था में सम्पूर्ण जगत् को शान्ति की आवश्यकता है । लेकिन सर्वत्र आतंकवादी प्रवृत्तियाँ सक्रिय हैं। इनकी सक्रियता से शान्ति व्यवस्था अनजानी वस्तु बनकर रह गई है। कविवर ने बताया है कि हर्जगत् के साथ-साथ मानव का अन्तर्जगत् भी भोग-विलास के विकारों से आतंकित है। जब तक हमारे भीतर सद्वृत्तियाँ जागृत नहीं होतीं, सुख-शान्ति की खोज अधूरी रहेगी । आचार्य ने मानव जाति को जीवन में उत्पन्न विसंगतियों से मुक्ति पाने के लिए संकल्प लेने की आवश्यकता जताई है, क्योंकि संकल्प शक्ति के समक्ष ही असत् को घुटना टेकने के लिए अन्तत: विवश होना पड़ता है ।
'मूकमाटी' महाकाव्य का कथा - फलक इतना विस्तृत होने के बावजूद बोझिल नहीं है, कौतूहलता सर्वत्र विद्यमान है । अध्यात्म, धर्म, दर्शन एवं सिद्धान्त जैसे कठिन विषयों का प्रतिपादन भी आचार्य ने इतने आकर्षक तरीके से किया है कि सरसता सर्वत्र परिलक्षित होती है। मूकमाटी को सार्थकता प्रदान करने का स्तुत्य कार्य कोई सिद्ध पुरुष सकता है।
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महाकाव्य की अनिवार्यता रस निरूपण की भी है। नव रसों में से एक
प्रधानता का होना आवश्यक माना गया है । प्रस्तुत कृति का प्रधान रस शान्त रस' प्रतीत होता है । कृतिकार स्वयं शान्त रस के अनुपम और विशिष्ट उदाहरण हैं। किसी महापुरुष के दर्शन, तत्त्वज्ञान और वैराग्य आदि से ही इस रस की उद्भावना होती है। शान्त रस के साथ-साथ शृंगार, करुण, हास्य, वीर, वात्सल्य आदि की योजना भी आचार्य ने उत्कृष्ट रूप में की है। शान्त रस के बाद अगर किसी दूसरे रस की प्रधानता परिलक्षित होती है तो वह है - वात्सल्य रस । माँ-बेटी के संवाद वात्सल्य रस के उत्कृष्ट उदाहरण हैं। अनेक प्रकार की विपत्तियों के आगमन तथा उनके शमनयुक्त प्रसंगों में वात्सल्य और करुणा का सागर लहराता है । 'मूकमाटी' में पाठक जितना ही डूबता है, उतना ही वह काव्य के लौकिक एवं अलौकिक आनन्द की प्राप्ति करता है, उसे सन्तोष की प्राप्ति होती है । महाकवि ने वात्सल्य रस के निरूपण में अपनी क्षमता का भरपूर दिग्दर्शन कराया है :
" अपने हों या पराये, / भूखे-प्यासे बच्चों को देख