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218 :: मूकमाटी-मीमांसा सरल हो जाते हैं। ये लक्षण 'माटी' के भीतर साहस और पुलक से लक्षित हो रहे हैं। माटी को शिल्पी से प्रेम है, अत: उसे शीत से बचने के लिए कम्बल ओढ़ने का सुझाव देती है । यह भी सत्य है कि प्रिय प्रेमी की रक्षा, सुरक्षा के लिए अधिक चिन्तित रहता है। तभी तो 'माटी' को शिल्पी के प्रति इतना ध्यान है कि उसे ठण्डक न लगने पाए। उसके कष्ट को अपना कष्ट मानती है । यही प्रेमी में प्रिय के अनुरक्त हो जाने का सही प्रमाण है । अत्यधिक प्रेम के कारण ही प्रेमी को कम बलवाला मानकर कम्बल ओढ़ने को कहती है और अपने को सबल मानकर शीत-गरम को सह लेने की अभ्यासी मानती है । स्नेह तो स्नेह ही है । इसी प्रकार माँ भी अपने वात्सल्य स्नेहवश ही सुरक्षा की दृष्टि से अपने बलवान् बेटे को भी दुर्बल ही मानती है और उसकी सुरक्षा के लिए चिन्तित रहती है।
एक स्थान पर कुम्हार द्वारा कुदाली से माटी पर किए गए प्रहार के माध्यम से कवि ने शासन सत्ता की समयसमय पर की गई निष्ठुरता, लाठी चार्ज आदि पर संकेत किया है :
"माटी के माथे पर/मार पड़ रही है/क्रूर - कठोर कुदाली से खोदी जा रही है माटी।/माटी की मृदुता में/खोई जा रही है कुदाली ! क्या माटी की दया ने/कुदाली की अदया बुलाई है ? क्या अदया और दया के बीच/घनिष्ट मित्रता है ?/यदि नहीं है."तो माटी के मुख से/रुदन की आवाज़ क्यों नहीं आई?/और माटी के मुख पर/क्रुधन की साज़ क्यों नहीं छाई?
क्या यह/राजसत्ता का राज़ तो नहीं है ?" (पृ. २९-३०) इससे यही प्रतीत होता है कि काव्य प्रणेता का ध्यान समय की पुकार के अनुसार चारों तरफ जा रहा है । विचारों में कूप मण्डूकता नहीं, व्यापकता है । साहित्य जो जनहित के साथ चलता है, उसी ओर कवि का ध्यान है । समाज के सजग प्रहरी के रूप में कविकर्म का निर्भय होकर पालन किया जा रहा है । 'माटी' तुच्छ, नाचीज़, हेय पदार्थ को लेकर कवि की विचारधारा कहाँ जा रही है, यह विशेष रूप से विवेचनीय है। दृष्टि सूक्ष्म होने के नाते कई भाव आभ्यन्तर रूप से समानान्तर चल रहे हैं।
कवि की बौद्धिक चेतना मंगल कलश के निर्माण को लेकर मंगलमयी हो रही है। कविवर जयशंकर प्रसाद ने ऐसी ही व्यापक पूत भावना के जागरण को चेतना का उज्ज्वल वरदान कहा है :
"उज्ज्वल वरदान चेतना का/सौन्दर्य जिसे सब कहते हैं,
जिसमें अनन्त अभिलाषा के/सपने सब जगते रहते हैं।" कवि की दृष्टि में चेतना का उज्ज्वल वरदान ही सौन्दर्य है, न कि शारीरिक और मांसल सौन्दर्य, जो क्षण-भंगुर होता है । काव्य प्रणेताओं को अमरत्व प्राप्त होता है, इन्हीं मंगलमयी व्यापक पूत भावनाओं के सृजनकर्ता होने के कारण।
कवि नर से नारायण बनने का आह्वान कर रहा है। शिल्पी कुम्भकार की कार्यशाला योगशाला है, जहाँ माटी के पात्र के समान मानवता रूपी पात्र का भी गढ़न हो रहा है । माटी, पात्र माध्यम हैं। विचार कितना स्पष्ट है कि माटी के समान जिसने प्रथम अपने को पतित और लघु होने का अनुभव किया, वही उस अभाव की पूर्ति हेतु प्रयत्न करेगा, और सच्चे गुरु की शरण लेगा। साधनागत कष्टों को स्वीकार कर, गुरु निर्देश के माध्यम से आभ्यन्तर के सुप्त प्रकाश को जागृत करेगा, जो जीवन का परम लक्ष्य है । मानव यात्रा में अधोमुखी निरन्तर ऊर्ध्वमुखी होने का प्रयत्न करता आया है :