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220 :: मूकमाटी-मीमांसा जगत् के जीव भटकें नहीं, बल्कि शास्त्रों द्वारा निर्मित, निर्दिष्ट पथ पर चलते रहें।
"स्वभाव से ही/प्रेम है हमारा/और/स्वभाव में ही/क्षेम है हमारा। पुरुष प्रकृति से/यदि दूर होगा/निश्चित ही वह/विकृति का पूर होगा पुरुष का प्रकृति में रमना ही/मोक्ष है, सार है।
और/अन्यत्र रमना ही/भ्रमना है/मोह है, संसार है"।" (पृ. ९३) आहत कण्टक छलिया मन के माध्यम से शिल्पी को कष्ट देने का निर्णय लेता है । 'माटी' के माध्यम से सन्त का उपदेश अनुकरणीय है :
"बदले का भाव वह दल-दल है/कि जिसमें/बड़े-बड़े बैल ही क्या, बल-शाली गज-दल तक/बुरी तरह फंस जाते हैं/और/गल-कपोल तक पूरी तरह धंस जाते हैं।/बदले का भाव वह अनल है/जो जलाता है तन को भी, चेतन को भी भव-भव तक!/बदले का भाव वह राहु है जिसके/सुदीर्घ विकराल गाल में/छोटा-सा कवल बन/चेतनरूप भास्वत भानु भी अपने अस्तित्व को खो देता है/और सुनो!/बाली से बदला लेना ठान लिया था दशानन ने/फिर क्या मिला फल ?/तन का बल मथित हुआ मन का बल व्यथित हुआ/और/यश का बल पतित हुआ यही हुआ न!/त्राहि मां ! त्राहि मां !! त्राहि मां !!!/यों चिल्लाता हुआ
राक्षस की ध्वनि में रो पड़ा/तभी उसका नाम/रावण पड़ा।” (पृ. ९७-९८) उक्त उपदेश कितने सटीक और जीवनोपयोगी हैं। बदला लेने की भावना में अँधा होकर एक-दूसरे को दुनियाँ से उठा देने का जघन्य अपराध कर डालता है, यह सोच कर कि परिणाम चाहे जो होगा, देखा जाएगा । देखा क्या जाएगा, पापयुक्त दुर्बुद्ध, परिवार का परिवार और समाज का समाज तथा साम्प्रदायिक दृष्टि से देखा जाए तो किन्हीं दो सम्प्रदायों में जब बदले की भावना की आग लोगों के मन में सुलगने लगती है तब अनगिनत संख्या में लोग मृत्यु के हवाले होने लगते हैं। उस जोश-खरोश में, सर्वनाश का प्रलय-सा उपस्थित करने वाले भगवान् शंकर का ताण्डव नृत्य उपस्थित हो जाता है और विनाश लीला के पश्चात् रोते-बिलखते, हाय-हाय करते, मुख छिपाए, पश्चाताप की अग्नि में जलते-झुलसते जीवन लीला समाप्त कर देते हैं। यह है बदले की भावना का स्थायी परिणाम ।
शीर्षक के अनुसार वर्णों के मेल से बना 'शब्द' मात्र उच्चारण है । उच्चारण से ही शब्द के अन्तर्गत छिपा भाव या अर्थ प्रकट होने लगता है । सही-सही उच्चारण शब्दार्थ को व्यक्त कर देता है । अर्थ या भाव समझ लेने पर ही वास्तविक बोध' होता है। बोध का तात्पर्य सन्तुष्टि से है अर्थात् पाठक या श्रोता सन्तुष्ट हो जाता है। शब्द के उच्चारण के माध्यम से अर्थ बोध हो जाना ही पर्याप्त नहीं है क्योंकि अर्थ-बोध मात्र मस्तिष्कपरक होता है, उसकी सीमा वहीं तक है। हाँ, जब अर्थ पर विचार-विनियम होता है तब उसके गुण-दोष पर अलग-अलग दूरगामी परिणाम को सोचा जाता है, तब गहन मन्थन के पश्चात् अर्थ के आभ्यन्तर से निकले नवनीत को समाजोपयोगी समझ कर तथा हर दृष्टि से सबके लिए हितकर मानकर स्वीकार कर लिया जाता है। सही शब्द-बोध के पश्चात् शब्द-शोध है । शोध शब्द स्वयं कह रहा है कि शब्दार्थ को शोध के पश्चात् ग्रहण करो । शोध की एक अपनी अलग प्रक्रिया होती है । जैसे शोध के पश्चात् ही वैद्य पुटपाक तैयार करता है वैसे ही शब्दार्थ को भी गुण-दोषरूपी खरी कसौटी पर चढ़ाने के पश्चात् खरा उतरने पर ही