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144 :: मूकमाटी-मीमांसा
० "एक के प्रति राग करना ही/दूसरों के प्रति द्वेष सिद्ध करता है,
जो रागी है और द्वेषी भी,/सन्त हो नहीं सकता वह/और नाम-धारी सन्त की उपासना से/संसार का अन्त हो नहीं सकता,
सही सन्त का उपहास और होगा।" (पृ. ३६३) 'मूकमाटी' प्रत्येक के लिए सहज काव्य नहीं अपितु अति गम्भीर है । कवि शब्द शिल्पी बनकर अनगिनत शब्दों को इस रूप में प्रस्तुत करते हैं कि पाठक आश्चर्य में पड़ जाता है कि इतने साधारण शब्द उलट-पलट कर या सीधे ही कितने असाधारण रूप में प्रस्तुत किए गए हैं। ‘साहित्य' शब्द को देखिए :
"शिल्पी के शिल्पक-साँचे में/साहित्य शब्द ढलता-सा ! हित से जो युक्त-समन्वित होता है/वह सहित माना है
और/सहित का भाव हो/साहित्य बाना है ।" (पृ. ११०-१११) प्रस्तुत महाकाव्य में जैन परम्परा के उन अनेक पारिभाषिक शब्दों का भी सुसंगत प्रयोग किया है जिनका प्रयोग आधुनिक काव्य में कठिन या प्रचलन के बाहर का मानकर प्रायः समाप्त-सा हो रहा था। इसीलिए इस महाकाव्य की गहन-गम्भीरता को समझने के लिए उन शब्दों और उनकी परिभाषाओं से भी परिचित होना आवश्यक है।
___ इस तरह यह आत्मोदय का अनुपम महाकाव्य है, साथ ही योग की दिशा में प्रस्थान का उत्तम महाकाव्य भी है, जिसमें जितनी डुबकी लगाएँगे उतने ही तलस्पर्शी ज्ञान से आलोकित होते रहेंगे। युगों-युगों तक चिर-नवीन बनकर यह अमर महाकाव्य मनीषियों के अध्ययन, चिन्तन-मनन और गवेषणा का केन्द्रबिन्दु बनकर साहित्य जगत् को गौरवान्वित करेगा, इसी मंगल कामना के साथ मूकमाटी के यशस्वी गायक पूज्य आचार्य श्री विद्यासागरजी को कोटिशः नमोस्तु ।
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जीच में ही करोंकी ओर से... ...... और खरा
बनेकंचन-सा !"