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158 :: मूकमाटी-मीमांसा
अविद्यया मृत्यु ती विद्ययाऽमृतमश्नुते ॥” (११) विद्या और अविद्या को साथ-साथ जो यथार्थत: जानता है, मृत्यु को पार करके ज्ञानानुष्ठान से अमृत प्राप्त कर लेता है। परब्रह्म परमात्मा पुरुषोत्तम से उसका सीधा सम्बन्ध जुड़ जाता है। सम्बन्ध जुड़ता है और प्रेम की लहर उत्पन्न होती है । पाताल के थाल में सर्वोच्य की आरती सजती है। आचार्यप्रवर विद्यासागर का उद्घोष है कि साधना और साधन के साथ अन्वित होने से सम्भावना बन सकती है । वे साधना के अनुभव से कहते हैं :
"साधना के साँचे में/स्वयं को ढालना होगा सहर्ष !" (पृ. १०) वस्तुत: जीवन साधना में ढलता है तथा साधना जीवन में घुसती है। आस्था से साधना पथ सहज बनता है । आस्था मूल है जिस पर साधना विटप टिका होता है । मूल का कम्पन शिखर को भी स्पन्दित करता है । आस्था की मज़बूती निर्मल संस्कारों पर निर्भर करती है । संस्कारों के स्वस्थ होने में समय लगता है। किन्तु गुरु की कृपा-कोर से संस्कार तत्काल निर्मल हो जाते हैं। विषमता एवं प्रतिकार भावना से बचाव अपेक्षित है । सन्त सेवा जीवन का ध्येय होना चाहिए। साधना यात्रा का प्रारम्भ समर्पण से होता है।
युगबोध को भी 'मूकमाटी' में अभिव्यक्ति मिली है। कुदाली की मार मिट्टी पर पड़ रही है । मृदुता में कुदाली की लौह-धार धंसती है । दया और निष्ठुरता का यह संघर्ष है । पीड़ित और पीड़क एवं शोषित और शोषक का खेल बराबर चला है । बोरी में बन्द होकर भी मिट्टी नवविवाहिता बधू की तरह चूंघट की ओट से झाँकती है। युग की पीड़ा बोरी से झाँक रही है। रचना-मानस से एक ध्वनि निकलती है :
"अमीरों की नहीं/गरीबों की बात है;
कोठी की नहीं/कुटिया की बात है ।" (पृ. ३२) प्यार का पीड़ा और व्रण की पीड़ा में अन्तर होता है। राग और विराग के छोर अलग-अलग हैं। अतिरेक दुःख का कारण होता है। दु:ख के अन्त से सुख का रेखांकन होता है। जीवन विज्ञान में दया से सरसता आती है । दया से स्व-बोध उजागर होता है। ऐसा स्व जिसमें स्व का अर्थ स्वार्थ नहीं होता, परार्थ होता है । वासना मोह के कीचड़ में डालती है और दया से मुक्ति-मार्ग प्रशस्त होता है। वासना में जलन है तथा दया में शीतलता और मृदुता । वासना अजगर है और दया जीवन प्रसाधन है, जीवन का शृंगार है । दया सन्त धर्म का उपकरण है। करुणा और दया देश तथा काल की सीमा से ऊपर हैं। सन्तों के संग मानस रोग दूर होते हैं । तत्त्वत: इस काव्य में परस्परोपग्रहो जीवानाम्' को सांवेदनिक धरातल मिल गया है। सूक्ति में संवेदना का योग घटित हो गया है । सन्त जीवन निर्वाह नहीं करते हैं, अपितु अपने सम्पर्क में आने वाले का पुनर्निर्माण करते हैं। पुनर्निर्माण से अधिक यह नव निर्माण होता है । सन्त परम्परा का इतिहास इसका साक्षी है। सत्संग में तो और भी कुछ हो जाता है-आत्मनिर्माण । वासना के कंकरों के फेंकने के बाद ही सत्संग मिलता है । आर्ष वाणी
"ऋषि - सन्तों का/सदुपदेश - सदादेश/हमें यही मिला कि पापी से नहीं/पाप से,/पंकज से नहीं/पंक से/घृणा करो।
अयि आर्य !/नर से/नारायण बनो/समयोचित कर कार्य ।" (पृ. ५०-५१) पापी अपवित्र नहीं करता वरन् पाप धूमिल करता है । पंकज से पंकिल होने का भय नहीं है। वह पराग देता