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मूकमाटी-मीमांसा :: 193 प्रयोजनीय वस्तु मानते हैं। साहित्य का काम है मनुष्य को, व्यक्ति मनुष्य को नहीं, बल्कि समष्टि मनुष्य को, आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक शोषण से मुक्त कराना । साहित्य ऐसी मानवीय संस्कृति का निर्माता होता है जिसमें समष्टि मनुष्य की समता और सामूहिक मुक्ति-चेतना की प्रधानता रहती है । साहित्य मनुष्य को छोटे प्रयोजनों में बाँधने के बदले उसे प्रयोजनातीत सत्य की ओर उन्मुख करता है । साहित्य उनके लिए भौतिक प्रयत्नों से भिन्न एक सांस्कृतिक वस्तु है, क्योंकि प्रयोजन जहाँ समाप्त होते हैं वहीं से साहित्य की शुरूआत होती है । रचनाकार की दृष्टि में साहित्य का प्रयोजन मनुष्य को संकीर्णता और मोह, लोभ, ममत्व से उठाकर उदार, विवेकी और सहानुभूतिमय बनाना है। उसका स्थूल प्रयोजनों से कुछ लेना-देना नहीं है । वह प्रकाश का रूपान्तर है। काव्य और साहित्य में रचनाकार अन्तर नहीं मानता है। उसका भी वही प्रयोजन और काम है जो साहित्य का । कविता में रस का होना अनिवार्य होता है क्योंकि बिना उसके कविता पाठकों पर गहरा प्रभाव नहीं डाल सकती । काव्य केवल कौशल ही नहीं है, वह अनुभूतिमय संयोजन भी है। अनुभूति की सान्द्रता ही रस है । रचनाकार ने कविता की रसमयता को मनुष्य जीवन की रसमयता से जोड़ दिया है। काव्य के नव रस हों या ग्यारह, सभी का जुड़ाव मनुष्य के जीवन की ऐतिहासिक गाथा से है । साहित्य भी माटी के मंगल घट तक बनने की पूरी यात्रा तय करता है। काव्य की दृष्टि से इस कृति में जिन विविध अलंकारों का प्रयोग किया गया है उनके सन्दर्भ नितान्त नए और मोहक हैं। इस कृति में शब्द की अनेक अर्थ-छवियों को उभारने का जो प्रयत्न किया गया है उसका श्रेय रचनाकार को है । रचनाकार की अर्थान्वेषिणी दृष्टि शब्द-ध्वनियों की बारीकी को परत-दरपरत उकेरती है जिससे शब्द के मर्म सहज ही उद्घाटित हो जाते हैं । मुहावरे और लोकोक्ति के प्रयोग से अर्थ में चार चाँद लग गए हैं। भाषा-शैली की प्रौढ़ता इस कृति की ऐसी विशेषता है जो रचना को पाठक से जोड़ती है । इस प्रकार 'मूकमाटी' एक साहित्यिक और आध्यात्मिक कृति है जो विश्व के मानवों को जीने का रहस्य बतलाती है ।
पृष्ठ२६ इस युग के दो मानव ----- शिव के समान खरा उतरा है!