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मूकमाटी-मीमांसा :: 197
सबको डस लिया । इसी समय कुम्भकार आ गया । उसने राजा से क्षमा माँगी । अपक्व कुम्भ ने राजा से व्यंग्य में कहा- जलती अगरबत्ती को छूने से जल गए न, लक्ष्मण-रेखा लाँघने वाला दण्डित होता ही है । कुम्भकार ने उसे मौन का संकेत कर, मोती भरी बोरियाँ राजा को देकर विदा किया।
जब बदलियाँ लौटने लगी तो सागर ने स्त्री रूप होने से उन्हें 'चला' कह डाला। प्रभाकर को यह उक्ति बुरी लगी और उसने बड़वाग्नि प्रज्वलित कर सागर को जलाना प्रारम्भ किया । सागर ने इसकी उपेक्षा कर तीन बादल भेजेकृष्ण, नील और पीत रूप । ये तीन लेश्याएँ हैं। उन्होंने प्रभाकर को आच्छन्न कर दिया। भास्कर ने प्रखर करों से उन्हें प्रभावित करना प्रारम्भ किया। इस पर सागर ने राह को भड़का कर उसका ग्रहण करा दिया। प्रकृति विकल हो गई तो कण-कण ने माँ धरती से निस्तार की प्रार्थना की। धरती ने कणों को प्रहार की आज्ञा दी, कण प्रभंजन बन गए। भूकण सघन होकर भी अघ से अनघ रहे. अत: घन (बादल) भागने लगे। कण पीछे और घन आगे। सागर ने पन: और घन भेजे । प्रच्छन्न रूप से इन्द्र ने धनुष तानकर घनों का तन चीर दिया और विद्युत् उत्पन्न कर वज्राघात किया, जिससे बादल रोने लगे पर जल-कणों की मार मारते रहे। कुम्भकार स्थितप्रज्ञ हो यह सब कुछ देखता रहा परन्तु गुलाब ने सखा पवन का आह्वान किया । वह आकर बादलों पर टूट पड़ा और उन्हें समुद्र पर ही धकेल दिया । इससे समुद्र पर ही ओले पड़ने लगे। इससे समुद्र शान्त हो गया।
आकाश धुल-सा गया, सूर्य निकल आया और नवालोक हुआ । पर शिल्पी (गुरु) अनासक्त रहा। यह देख अपरिपक्व कुम्भ ने कहा- 'ठीक है, परीषह और उपसर्ग के बिना स्वर्ग-अपवर्ग की उपलब्धि कभी नहीं हुई।' कुम्भकार अपरिपक्व कुम्भ की यह बात सुनकर समझ गया कि साधक ठीक मार्ग पर चल रहा है और कुम्भ से बोला- 'तुम्हें अब अग्निधार पर चलना है।' इस पर कुम्भ ने कहा-'साधक की अन्तरदृष्टि में जल और अनल का भेद लुप्त हो जाता है तथा उसकी साधना-यात्रा भेद से अभेद की ओर बढ़ती ही रहती है।'
__चतुर्थ खण्ड: कुम्भकार ने अवा बनाया और बबूल आदि की लकड़ियाँ चुनीं । अवा जलने लगा। निरपराध कुम्भ को जलाने में लकड़ियों ने अन्यमनस्कता दिखाई तो कुम्भकार ने कहा कि इसको तपाकर इसके उद्धार में मेरी सहायता करो । लकड़ियों ने सहयोग दिया और धूम निकला । कुम्भ ने कुम्भक प्राणायाम लगाया जो योगतरु का मूल है। उधर तपन और धूम से विकल कुम्भ को अग्नि ने ध्यान का स्वरूप समझाया तथा दर्शन और अध्यात्म का अन्तर बताते हए कहा कि दर्शन का स्रोत मस्तिष्क है. अध्यात्म का हदय; दर्शन सविकल्प है और अध्यात्म निर्विकल्प ज्ञान।
___ कुम्भकार सो गया था। प्रात: जब उसने अवा की राख हटाई तो कुम्भ को पका देखकर बहुत प्रसन्न हुआ, क्योंकि उसकी साधना सफल हुई। उधर कुम्भ भी स्वयं को मुक्त हुआ जान कर प्रसन्न हुआ और सोचने लगा कि मेरा पात्रदान किसी त्यागी को होना चाहिए । यहाँ पर साधु के मूलगुणों का बड़ा ही दार्शनिक किन्तु मनोरम भाषा में प्रतिपादन हुआ है।
रात में एक सेठ को स्वप्न आया कि वह मंगल कलश ले एक साधु का स्वागत कर रहा है। प्रात: होते ही उसने कलश लाने के निमित्त सेवक को भेजा । सेवक कुम्भकार के समीप पहुँचा और उससे घट की याचना की। कुम्भकार से घट लेकर सेवक ने कंकड़ से घट को बजाया तो 'सा रे ग म प ध नि' की ध्वनि निकली । मानों कह रहा था- सारे गम, पध-पद अर्थात् स्वभाव, न-नहीं हैं अर्थात् दुःख मेरा स्वभाव नहीं है। सेवक घट को ले आया। सेठ ने उस पर स्वस्तिक चित्र बनाया और मांगलिक पदार्थों से उसे सजा कर साधु की प्रतीक्षा करने लगा। जैसे ही साधु आए, उसने नमोऽस्तुनमोऽस्तु-नमोऽस्तु, अत्र-अत्र-अत्र, तिष्ठ-तिष्ठ-तिष्ठ' कह कर अभिवादन किया और आहार की विधि के साथ