________________
198 :: मूकमाटी-मीमांसा आहार दिया। साधु ने भी कायोत्सर्ग करके पाणिपात्र में आहार लिया । आहारोपरान्त सेठ की प्रार्थना पर साधु ने सभी को उपदेश दिया कि यह दृश्यमान जगत् मैं नहीं हूँ, अत: स्व में लीन हो पुरुषार्थ करना चाहिए- पुरुष=परमात्मा+अर्थ प्राप्तव्य है। यह कहकर साधु चले गए। सन्त संगति से वंचित सेठ अत्यन्त खिन्न हो गया।
सेठ को विषण्ण देखकर कुम्भ ने उसे साधुओं की महिमा बताकर आश्वस्त किया। सेठ को कुम्भ में साधुता के दर्शन हुए। इससे स्वर्ण कलश को ईर्ष्या हुई कि इतने मूल्यवान् कलशों के रहते हुए मिट्टी के घट का इतना सम्मान ! तब मिट्टी के कलश ने उसे ताड़ते हुए कहा-'तुम अपने को सवर्ण समझते हो पर तुम्हारी संगति से तो दुर्गति का मार्ग खुलता है। माँ माटी को मान दो, यह तुम्हारी भी माँ है।' स्व-पर का भेदज्ञान ही सद्ज्ञान है और स्व में रमण करना ही सत्ज्ञान का फल है। विषयों में रसिकता और भोगों की दासता संसार-बन्धन के कारण हैं। ऋषि भी माटी की शरण लेते हैं, इसी पर शयन करते हैं। इस प्रसंग में वहीं पर विद्यमान झारी, चम्मच, घृत, केसर आदि का नोंकझोंक पूर्ण वार्तालाप बड़ा ही मनोरंजक है । सभी ने मिट्टी के घट का उपहास किया।
रात को सोते समय खून का प्यासा एक मच्छर आया । उसने सेठ की प्रदक्षिणा की, कान में मानों मन्त्र भी जपा, तब भी कृपण ने कृपा न की। यह देखकर पलंग में विद्यमान मत्कुण ने कहा-'सखे ! चौंको नहीं, ये बड़े लोग हैं। ये स्वयं के लिए ही संग्रह करते हैं पर हमको रक्त की एक बूंद भी दान नहीं करते।' कुछ देर दोनों में बहुत ही रोचक किन्तु सारगर्भित सम्भाषण हुआ । सेठ उसे सुनकर प्रसन्न हुआ और अपने को प्रशिक्षित-सा अनुभूत करने लगा। परन्तु रात में नींद न आने से दाह ज्वर हो गया।
प्रात:काल वैद्य बुलाए गए। सब ने परामर्श करके कहा-दाह ज्वर है । उन्होने औषधियों से उपचार किए पर असफल रहे । 'श-स-ष' इन बीजाक्षरों से भी उपचार किया अर्थात् इनको श्वास से भीतर ग्रहण कराकर नासिका से ओंकार ध्वनि के रूप में बाहर बार-बार निकलवाया, अन्त में भू की शरण ली। भू की पुत्री माटी का टोप बनाकर सिर पर रखा, जिससे सेठ की संज्ञा वापिस आने लगी। उसके शरीर में योगिगम्या, मूलोद्गमा, ऊर्ध्वानना, पश्यन्ती के रूप में नाभि की परिक्रमा करती हुई ओंकार ध्वनि निरक्षरा रूप में उठी, जिसने मध्यमा को जाग्रत कर हृदय मध्य को स्पन्दित किया, पुन: तालु-कण्ठ-रसना का आश्रय ले वही मध्यमा वाणी वैखरी बन कर मुख से निकली।
मिट्टी के उपचार से सेठ नीरोग हो गया और उसने पारिश्रमिक देकर वैद्यों को विदा किया । माटी का यह सम्मान देखकर स्वर्णकलश में प्रतिशोध की भावना पुन: जगी। वह सोचने लगा कि कैसा कलियुग है जो झिलमिलाती मणिमालाओं, मंजुल मुक्तामणियों, उदार हीरक हारों, शुक-चोंचों को लजाते गूंगे से मूंगों तथा नयनाभिराम नीलम के नगों को छोड़ कर मिट्टी के लेप से उपचार होता है, स्वर्ण-रजतादि के पात्रों को त्यागकर इस्पात के बर्तनों का क्रय होता है, उससे हथकड़ी और बेड़ियाँ बनती हैं और चन्दन, घृत एवं कपूर को तिरस्कृत कर कर्दम का लेप किया जाता है । लोग संग्रह कर धनाढ्य बनते हैं और समाजवादी कहलाते हैं। उसमें यह सोचकर अहं जगा और उसने आतंकवाद का आश्रय लिया। यह देख कुम्भ ने सेठ को सचेत किया और पीछे के द्वार से सपरिवार भाग जाने का संकेत दिया।
सेठ वन-उपवन की हरित वृक्षावलियों से जाता, सिंह पीड़ित गजयूथों को अभय देता हुआ आगे बढ़ रहा था कि आतंकवादियों ने आक्रमण बोल दिया । गजों तथा नागों ने उन्हें बचाया और आतंकवादी भय से भाग गए । सहसा घनी घटाएँ छा गईं, प्रचण्ड पवन प्रवहित हुआ, वृक्ष शीर्षासन करने लगे, मूसलाधार वर्षा होने लगी और सब जलमग्न हो गया । परन्तु कुछ समय पश्चात् सब शान्त हो गया और सबने सोचा लौट चलें परन्तु कुम्भ ने कहा-'नहीं, अभी आतंकवाद शेष है, नदी को पार करना है। मेरे गले में रस्सी बाँधो और एक-दूसरे को पकड़ लो, मैं तुम्हें पार ले जाऊँगा।' ऐसा ही हुआ, वे नदी में कूद पड़े । मत्स्य, मकर, कच्छप, सर्पादि ने उन्हें खाना चाहा किन्तु उनके मैत्रीपूर्ण