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202 :: मूकमाटी-मीमांसा
रूप जीवात्मा के साथ तथा उसके उद्धारक कुम्भकार रूप गुरु के साथ घटित हुआ है। परन्तु अहिंसा, संयम और तप रूप धर्म को पालन करते हुए उन्होंने उन पर विजय प्राप्त की है।
कवि ने काव्य में स्थान-स्थान पर विभिन्न पात्रों के माध्यम से उपर्युक्त अध्यात्म विषयों को इतनी आलंकारिक कलित शब्दावलि में अंकित किया है कि काव्य सौष्ठव के मिश्रण से वे रुचिकर और सुपाच्य हो गए हैं। वास्तव में अध्यात्मयोगी सन्तकवि की मानों यह अपनी ही गाथा है, तभी काव्य का प्रवाह वक्र या खण्डित न हो, सहज और अजन बहा है।
काव्य सौन्दर्य : अनेक आचार्यों ने काव्य की विभिन्न परिभाषाएँ की हैं, यथा-रसमय वाक्य काव्य होता है, ध्वनिवत् वाक्य काव्य होता है या ऐसे शब्दार्थ काव्य होते हैं, जो दोषमुक्त हों, गुणयुक्त हों तथा प्रायः सालंकार हों, इत्यादि । इस काव्य में गुणवत्ता भी है, निर्दोषता भी; रसवत्ता भी है और अलंकार भी । व्यंजना सौन्दर्य तो समस्त काव्य में स्वयं ही मुखर है । इस काव्य सौन्दर्य का हम अत्यन्त संक्षेप में दिग्दर्शन कराते हैं, क्योंकि इस विशाल काव्य में इतने उदाहरण विद्यमान हैं कि यदि विस्तार से लिखा जाय तो वह स्वयं एक ग्रन्थ बन जायगा।
इसमें प्रसाद गुण तो सर्वत्र ही व्याप्त है। माधुर्य और ओज की कुछ पंक्तियाँ यहाँ उल्लिखित हैं। निम्न पंक्तियों में माधुर्य की मुखरता द्रष्टव्य है :
"प्रकृति के साथ/मलिन मन, कलिल तन/बात करता वात है । कल-कोमल-कायाली/लता-लतिकायें ये,
शिशिर-छुवन से पीली पड़ती-सी/पूरी जल-जात हैं।" (पृ. ९०) राहु-स्वीकृति हेतु सागर से निर्यात रत्नों की छटा और उनके वर्णन में मृदुलता और मधुरता निसर्गत: साकार हो गई हैं :
“ऐसी हँसती धवलिम हँसियाँ/मनहर हीरक मौलिक-मणियाँ मुक्ता-मूंगा-माणिक-छवियाँ/पुखराजों की पीलिम पटियाँ
राजाओं में राग उभरता/नीलम के नग रजतिम छड़ियाँ ।” (पृ. २३६) इसी प्रकार अनेक स्थानों पर वीर, भयानक और बीभत्स प्रसंगों में ओज का अंकन भी उद्दाम रूप में बिखरा पड़ा है । गड़गड़ाते बादलों के नभमण्डल में आगमन का एक दृश्य दर्शनीय है :
“कठोर कर्कश कर्ण-कटु/शब्दों की मार सुन/दशों-दिशायें बधिर हो गईं, नभ-मण्डल निस्तेज हुआ/फैले बादल-दलों में डूब-सा गया
अवगाह-प्रदाता अवगाहित-सा हो गया !" (पृ. २३२) गुणों के साथ-साथ काव्य में अदोषता भी सौन्दर्य की हेतु होती है । इस काव्य में मुक्त छन्द का व्यवहार हुआ है किन्तु आधुनिक काव्य के विपरीत इसमें कहीं भी स्वर, ताल और लय का अभाव नहीं है । सर्वत्र काव्य गुणों की सम्प्रेषणीयता विद्यमान है । छन्द में गति है, प्रवाह है और है मसृणता । सभी रसों, ऋतुओं और प्राकृतिक दृश्यों के वर्णन तथा यहाँ तक कि कथानक में अध्यात्म के संश्लेषण में दोष दृष्टिगोचर नहीं होते । इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि छन्दोबद्ध काव्य में अनेक दोष स्वयं ही सिर उभारने लगते हैं, जैसे- शब्दालंकार के दोष, छन्दो-भंग के दोष आदि । परन्तु यह मुक्त-छन्द महाकाव्य होने के कारण इन दोषों से मुक्त है। व्याकरण दोष इसलिए नहीं है क्योंकि कवि