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200 :: मूकमाटी-मीमांसा
कलुष के संकुलन, कर्मों के संश्लेषण और स्व-पर कारणों से विश्लेषण का रूप स्पष्ट हो जाता है। यह तभी होता है जब आत्मा ममता तथा समता में परिणत हो जाती है ।
जब आत्मा के भावों में यह परिणति आती है, तभी वह गुरु की शरण में आती है । इस कथानक में गुरु कुम्भकार है । वह स्थितप्रज्ञ, अविकल्पी, हितमितभाषी तथा उदासीन है, मान को मार चुका है। वह माटी रूप आत्मा की ऊपरी परत हटाता है अर्थात् अज्ञान की प्रथम परत दूर करता है। कुम्भकार मिट्टी को साधना मार्ग रूप गदहे पर लाद कर अपनी योगशाला रूप धर्मस्थली में लाया, उसे विवेक रूप चालनी से छाना तथा कंकड़ रूप विभावों-राग-द्वेषमोहादि को पृथक् किया । इस प्रकार मिट्टी रूप आत्मा को शुद्ध करके कूप अर्थात् आत्म गहराई से जल निकालने के लिए कुम्भकार रूप गुरु ने ज्यों ही उलझन रूप रस्सी की ग्रन्थियों को खोला तो उसको अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा । इसके लिए प्रथम स्वयं निर्ग्रन्थ-सम स्थिति ग्रहण करनी पड़ी। उसने कूप रूप स्वीय अन्तरात्मा से जलरूप अनुकम्पा को उद्भावित किया । इस प्रक्रिया में उसने मछली रूप एक अन्य भव्यात्मा को जल में रहकर समाधि रूप सल्लेखना का सार समझाया ।
प्रात: हुआ और कुम्भकार ने मिट्टी को साना कि कुदाली से विक्षतांग काँटा प्रतिशोध के लिए उद्यत हुआ । मिट्टी ने उसे समझाया । यहाँ काँटा अहंकार का प्रतीक है और मिट्टी की बोधनवृत्ति विनय की । इस स्थिति तक मिट्टी रूप साधक में इतना आत्म-विकास हो गया है कि कुम्भकार रूप गुरु के द्वारा साधना को कठोर करने पर वह गुरु के समक्ष संसार का स्वरूप निरूपित करता है । यहाँ पर शिशिर, वसन्तान्त और निदाघ ऋतुओं के वर्णन के मिष साधना काल के विविध परीषह आयामों का अंकन किया गया है । तदनन्तर वर्षा ऋतु का बड़ा ही सुन्दर वर्णन है, किन्तु अध्यात्म पक्ष में जलधि, चन्द्र, बदली, बादल, राहु रूप विभावों तथा उत्पातों और सूर्य, धरती, बड़वाग्नि, इन्द्रधनुष तथा पवन रूप भावों तथा सदाचार वृत्तियों का द्वन्द्व-युद्ध रहस्यात्मक होता हुआ भी अत्यन्त रुचिकर है । यह सब अनासक्त गुरु : और साधक के ऊपर परीषह और उपसर्गों का निरूपण है । अब माटी रूप आत्मा कुम्भ रूप प्रबुद्धावस्था में पहुँच चुकी है, अत: वह उदासीन गुरु कुम्भकार से कहता है : 'मान्यवर ! परीषह-उपसर्गों के बिना स्वर्ग-अपवर्ग की उपलब्धि नहीं होती।' इससे गुरु समझ गया कि शिष्य में ज्ञान वृद्धि पर है, अत: उसने उसे अग्निधार अर्थात् तपोमार्ग पर चलने के लिए सचेत किया।
कुम्भका रूप गुरु ने कुम्भ रूप ज्ञानोन्नत आत्मा को तपने के लिए अवा बनाया और उसमें लकड़ियाँ चिन दीं। यहाँ अवा कर्मास्रव को रोकने तथा बन्ध को खोलने के लिए संवर एवं निर्जरा का वलय है । अवा में प्रज्वलित अग्निप है—‘तपसा निर्जरा च’अर्थात् तप से निर्जरा भी होती है । कुम्भ भी अग्नि से तपता है, तभी मांगलिक और मूल्यवान् बनता है। कुम्भकार रूप गुरु जब अवा को खोलता है तो कुम्भ रूप प्रबद्ध आत्मा को परिपक्व देखकर प्रसन्न होता है। उधर जीवात्मा को भी ज्ञान परिपक्व हो जाने पर आनन्द का अनुभव हुआ और उसने कामना की कि मैं किसी साधु के पादाभिषेक का कारण बनूँ ।
कुम्भ रूप जीवात्मा को साधन मिलता है । यहाँ पर सेठ रूप श्रावक द्वारा कुम्भकार से उसे ग्रहण करने, साधु का सेठ के घर आहारार्थ आने, विधिपूर्वक आहार करने, उनके चले जाने, कुम्भ का सम्मान होने, स्वर्णकलश आदि में पुन: ईर्ष्या जगने और आतंकवादियों को भड़काकर उनसे आक्रमण कराने, सेठ के पलायन करने, पुनः नदी में अनेक उपसर्गों के आने तथा अन्त में नदी पार होकर वीतरागी के चरणों का कलश-जल से अभिषेक करने तक की कथा पूर्वानुसार भाव-विभावों के घात-प्रतिघात और उपसर्ग एवं परीषहों के उत्पात की कथा है। यही स्थिति है जब माटी रूप परिष्कृत आत्मा पक्व कुम्भ रूप महान् ज्ञानी के रूप को प्राप्त कर लेती है और पुन: वीतरागी के चरणों में समर्पित