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170 :: मूकमाटी-मीमांसा
सही-सही निर्णय लेना बहुत कठिन है, / क्योंकि,
अपनी आँखों की लाली / अपने को नहीं दिखती है । " (पृ. २७६ )
कुम्भ अग्नि से अनुरोध करता है कि तुम्हारे सद्गुणों से सभी प्रभावित हैं क्योंकि शिष्टों पर अनुग्रह करना सहज प्राप्त शक्ति का सदुपयोग है, धर्म है । और अग्नि अपना धर्म प्रकट करती है, अवा ज़ोरों से जल उठता है। कुम्भ के सारे अस्तित्व में धुआँ समा जाता है :
है :
"उदर में धूम को पूर कर/ कुम्भ ने कुम्भक प्राणायाम किया
जो ध्यान की सिद्धि में साधकतम है / नीरोग योग- तरु का मूल है ।" (पृ. २७९ ) लकड़ियाँ अग्नि को जन्म देकर अग्नि में लीन हुई । कुम्भ भी इस अग्नि परीक्षा से पार उतरकर धन्य हो उठता
" परिणाम - परिधि से / अभिराम - अवधि से / अब यह
बचना चाहता है, प्रभो ! / रूप - सरस से / गन्ध - परस से परे
अपनी रचना चाहता है, विभो ! / संग-रहित हो जंग-रहित हो/शुद्ध लौह अब/ध्यान-दाह में बस पचना चाहता है, प्रभो !” (पृ. २८५)
इसके बाद अग्नि और कुम्भ में ध्यान और दर्शन पर चर्चा होती है। अग्नि कहती है :
"दर्शन का स्रोत मस्तक है, / स्वस्तिक से अंकित हृदय
अध्यात्म का झरना झरता है । / दर्शन के बिना अध्यात्म - जीवन चल सकता है, चलता ही है / पर, हाँ !
बिना अध्यात्म, दर्शन का दर्शन नहीं ।" (पृ. २८८ )
इस एक सूत्र में आचार्यश्री के कवि ने अनगिनत चिन्तन - चर्चाओं का सार भर दिया है। कुम्भकार इन चर्चाओं को स्वप्न में देखता - सुनता है । परन्तु ऐसे स्वप्न आना सबके भाग्य में कहाँ ? यहाँ 'स्वप्न' का अपनी तरह से विश्लेषण करता है
कवि :
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'स्व' यानी अपना / 'प्' यानी पालन - संरक्षण / और
'न' यानी नहीं, / जो निज-भाव का रक्षण नहीं कर सकता वह औरों को क्या सहयोग देगा ?" (पृ. २९५)
और फिर स्वप्न - जगत् से कुम्भकार सत्य - जगत् में आता है ।
अग्नि परीक्षा से परीक्षित कुम्भ सकुशल बाहर आता है । परीक्षित कुम्भ को देख कर कुम्भकार के हर्ष का पार नहीं । वह इस कुम्भ के साथी अनेक कुम्भों को भी अवा से बाहर निकालता है । कुम्भ के हृदय में तभी अतिथि सत्कार का भाव जागता है । उस पूत - पवित्र अतिथि पात्र की तरह -तरह की कल्पनाएँ करता है कुम्भ :
" मानापमान समान जिन्हें, / योग में निश्चल मेरु- सम,
उपयोग में निश्छल धेनु- सम / लोकैषणा से परे हों / मात्र शुद्ध-तत्त्व की
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