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172 :: मूकमाटी-मीमांसा
कभी कहते नहीं कि/हमें छू लो, तुम ।/सुरभि या दुरभि जो भी गन्ध हो, शुभ या अशुभ-/कभी कहते नहीं, कि हमें सूंघ लो, तुम।/...परस-रस-गन्ध/रूप और शब्द
ये जड़ के धर्म हैं/जड़ के कर्म"।" (पृ. ३२९-३३०) जैन सिद्धान्त में फलित भेद-विज्ञान का विश्लेषण इन पंक्तियों में स्पष्ट दिखाई देता है ।
और फिर, अतिथि की अंजुलि खुलती है, आहार-दान प्रारम्भ होता है । अतिथि की विशेषताओं का विस्तृत विवरण अगली पंक्तियों में है । सेठ का पूरा परिवार अतिथि को दिए गए आहार दान से प्रसन्न हो उठता है।
इधर वहाँ उपस्थित अन्य जड़ वस्तुओं की भाव-भंगिमा का सूक्ष्म चित्रण कवि ने किया है । वे हैं- सेठ का उत्तरीय, अंगूठियाँ, कुण्डल । कुण्डल और कपोलों में भी चर्चा होने लगती है। आहार पूर्ण होता है। सेठ निष्परिग्रह अतिथि से उपदेश के दो शब्द कहने का अनुरोध करता है । अतिथि कुछ ही शब्दों में सिद्धान्त का निचोड़ प्रस्तुत कर देते हैं :
"बाहर यह/जो कुछ भी दिख रहा है/सो''मैं "नहीं है और वह मेरा भी नहीं है।/ये आँखें/मुझे देख नहीं सकतीं/मुझ में देखने की शक्ति है/उसी का मैं स्रष्टा/था"हूँ"रहूँगा,
बाहर यह/जो कुछ भी दिख रहा है/सो''मैं "नहीं"हूँ।" (पृ. ३४५) अतिथि उपवन की ओर विदा होते हैं। उनका कमण्डलु लेकर सेठ उनके पीछे-पीछे छाया की तरह जाता है नसियाजी में । अतिथि गुरु से विदा लेते समय वियोग का तीव्र भाव सेठ के मन में उठता है और वह उनके पुण्यप्रद पूज्य पदों में लोटने लगता है, फूट-फूटकर रोते हुए।
वह अपने मन की व्यथा गुरु से कहता है । यह व्यथा आज के हर उस व्यक्ति की व्यथा है, जिसे समय का सत्य जब तब पीड़ित करता रहता है :
"क्या पूरा का पूरा आशावादी बनूँ ?/या सब कुछ नियति पर छोड़ दूँ ? छोड़ दूं पुरुषार्थ को ?/हे परम-पुरुष ! बताओ क्या करूं? काल की कसौटी पर/अपने को कहूँ ?/गति-प्रगति-आगति नति-उन्नति-परिणति/इन सबका नियन्ता/काल को मानें क्या ? प्रति पदार्थ स्वतन्त्र हैं।/कर्ता स्वतन्त्र होता है-/यह सिद्धान्त सदोष है क्या ? 'होने' रूप क्रिया के साथ-साथ/'करने' रूप क्रिया भी तो..
कोष में है ना!" (पृ. ३४७-३४८) धर्म-सिद्धान्त-कर्ता-कर्म और पुरुषार्थ के विषय में ये तीखे प्रश्न आचार्यश्री की कवि-लेखनी से मार्मिक रूप से प्रकट होते हैं और उनके उत्तर भी । श्रीगुरु वात्सल्य भाव से उत्तर देते हैं :
“ 'नि' यानी निज में ही/'यति' यानी यतन-स्थिरता है अपने में लीन होना ही नियति है/निश्चय से यही यति है,/और 'पुरुष' यानी आत्मा-परमात्मा है/ अर्थ' यानी प्राप्तव्य-प्रयोजन है आत्मा को छोड़कर/सब पदार्थों को विस्मृत करना ही