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176 :: मूकमाटी-मीमांसा
"अरी निम्नगे निम्न-अघे !/इस गागर में सागर को भी धारण करने की क्षमता है/धरणी के अंश जो रहे हम ! कुम्भ की अर्थ-क्रिया/जल-धारण ही तो है/और "सुनो ! स्वयं धरणी शब्द ही/विलोम-रूप से कह रहा है कि धरणी नी"र"ध/नीर को धारण करे 'सो' 'धरणी
नीर का पालन करे सो "धरणी !" (पृ. ४५३) धरणी की यह नई व्याख्या सुन कर नदी चुप हो जाती है। यह सुनकर नदी का एक महामत्स्य प्रसन्न होकर एक मुक्तामणि कुम्भ को भेंट करता है। इस मुक्तामणि को जो पा जाता है वह अगाध जल में भी अबाध पथ पा जाता है (पृ. ४५४)।
सेठ परिवार उस भँवर से बच कर आगे बढ़ता है। नदी अपनी भूल स्वीकार करके क्षमा माँगती है । ये लोग गन्तव्य की ओर पहुँचने को ही होते हैं कि अचानक आतंक की पुनरावृत्ति होती है। आतंकवादी दल नदी से प्रार्थना करता है कि इस सेठ परिवार को डुबो दे। नदी उनकी बात नहीं सुनती तो आतंकवादी दल एक नाव लेकर सेठ परिवार के पीछे लपकता है और आगे बढ़ कर मार्ग रोक लेता है। फिर उन पर अंधाधुन्ध पत्थरों की वर्षा करने लगता है। परिवार जनों के रक्त से नदी की धारा लाल हो जाती है।
पत्थरों की वर्षा जारी रहती है । सेठ कुम्भ को अपने पेट के नीचे लिए दुःसह कर्मफल शान्त भाव से सहता रहता है। आतंकवाद अपने को पराजित-सा अनुभव करता है और एक बड़ा-सा जाल सेठ परिवार पर फेंकता है। तभी चमत्कार की तरह पवन प्रलय का रूप लेता है और उस जाल को उड़ा देता है । आतंकवादी दल की नाव चक्कर खाकर डूबने लगती है। वे सब मूर्छित हो जाते हैं। तब कुम्भ के संकेत पर पवन का वेग थमता है। आतंकवादियों की नाव फिर स्थिर होने लगती है और वे लोग पुन: सेठ परिवार को ललकारने लगते हैं। सेठ सहित परिवार जन अब धीरज नहीं रख पाते और आतंकवाद के सामने आत्मसमर्पण की बात सोचने लगते हैं कि नदी उन्हें रोक देती है :
"उतावली मत करो!/सत्य का आत्म-समर्पण और वह भी/असत्य के सामने ?/...असत्य की दृष्टि में सत्य असत्य हो सकता है/और/असत्य सत्य हो सकता है, परन्तु/सत्य को भी नहीं रहा क्या/सत्यासत्य का विवेक ?
सत्य को भी अपने ऊपर/विश्वास नहीं रहा ?" (पृ. ४६९-४७०) आतंकवाद की नाव को नदी फिर नचाने लगी। नाव की दशा देखकर आतंकवादियों ने मन्त्र-शक्ति का प्रयोग करके देवताओं को बुलाया । देवताओं ने उनकी कुछ भी सहायता करने में असमर्थता व्यक्त की। उन्होंने समझायाबुझाया, परन्तु आतंकवाद कहाँ मानने वाला था ? तभी एक भयानक घटना घटी । नाव की करधनी डूबने लगी और आतंकवादी दल हाहाकार कर सेठ से क्षमायाचना करने लगा, बचाने की दुहाई देने लगा :
"क्षमा करो, क्षमा करो/क्षमा के हे अवतार !/हमसे बड़ी भूल हुई,
पुनरावृत्ति नहीं होगी/हम पर विश्वास हो !" (पृ. ४७४) सेठ का हृदय दया से छलक उठा, उसी तरह जिस तरह माँ का हृदय सन्तान के लिए छलक उठता है । सेठ के मुँह से प्रेममयी वाणी निकलती है :