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स्वच्छन्द यथार्थ के साथ बौद्धिक लाक्षणिकता का समन्वय : 'मूकमाटी'
डॉ. केदार नाथ पाण्डेय "लम्बी, गगन चूमती व्याख्या से/मूल का मूल्य कम होता है सही मूल्यांकन गुम होता है।/मात्रानुकूल भले ही। दुग्ध में जल मिला लो/दुग्ध का माधुर्य कम होता है अवश्य !
जल का चातुर्य जम जाता है रसना पर!" (पृ. १०९) 'उत्तर मीमांसा' से अर्थात् ज्ञानकाण्ड से नयनोन्मीलन करने वाले आचार्यप्रवर विद्यासागर की 'मूकमाटी' ऐसी माटी की कथा नहीं है जिसे पुस्तक के आवरण पृष्ठ पर निरीह,पददलित, व्यथित वस्तु कहा गया है। यह एक आक्षेपपदाक्षेप-प्रतिक्षेप की वस्तु नहीं। 'मूकमाटी' की माटी की सत्ता का सही चित्र उन लोचनों में अंकित ही नहीं हो सकते जिनमें विचारों की ऐसी वल्लरियाँ होती हैं जो किसी शैली विशेष में क्रोध और विरोध के साथ प्रतिक्रिया, प्रगति एवं दु:खवाद को जन्म देती हैं। जो पुरुष समस्त कर्मों को प्रकृति के आश्रित देखता है और आत्मा को अकर्ता समझता है, वही देखता है।
"प्रकृत्यैव च कर्माणि क्रियमाणानि सर्वशः।
यः पश्यति तथात्मानमकतरिं स पश्यति ॥” (गीता, १३/२६) और वही इस माटी को भी देखता है । कणाद मुनि प्रवर्तित वैशेषिक (पदार्थों के भेदों का बोधक) दर्शन के अनुसार पदार्थ उसे कहते हैं जो प्रतीति से सिद्ध हो । उनके अनुसार द्रव्य नौ हैं-"पृथिव्यपस्तेजोवायुराकाशं कालो दिगात्मा मन इति द्रव्याणि' (१.१.५)- अर्थात् पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, काल, दिशा, आत्मा और मन ।
पृथिवी के कारण निरवयव सूक्ष्म परमाणु हैं । ये परमाणु नित्य हैं। उनका कार्य रूप स्थूल भूमि है। भूमि अनित्य है। पृथिवी में चार गुणों का समावेश है- गन्ध, रूप, रस एवं स्पर्श । पृथिवी की रचना के कारण नित्य सूक्ष्म परमाणु के कार्य रूप स्थूल भूमि ही महाज्ञानी विद्यासागर की 'मूकमाटी' का दर्शन है । साधक कवि ने गहराई एवं चतुराई से षड्दर्शन समन्वय के प्रयास अपनी अति आधुनिक शैली में किए हैं। इस प्रयास में उनके भव्य व्यक्तित्व एवं सुघर कलाकृतित्व का रंग भी मुखर हो गया है। श्रमहारा के सबल-सैन्य बल से जोती, बोई जाने वाली माटी के अतिरिक्त भी इस धरा-वसुन्धरा के वक्ष-कक्ष में पलती माटी के असंख्य रूप हैं। कवि ने काव्य प्रसंगों के कर से केवल उन्हीं रूपों को शब्दों के रंग से भरा है जिनका प्रयोजन 'मूकमाटी' की कथा की गतिशीलता के लिए है।
___सामान्य जन के मानस का स्पर्श करने के लिए कवि ने सहृदयता पूर्वक सरिता तट की माटी को “सुखमुक्ता/दुःख-युक्ता” कहा है । तिरस्कृत, परित्यक्ता के साथ “विपरीता है इसकी भाग्य रेखा" (पृ. ४) भी कहा है। कवि का दर्शन इसी 'विपरीता' के साथ है। तिरस्कृत-परित्यक्ता कह कर कवि ने चतुराई से उस जन-समुदाय की ओर सहानुभूति की दृष्टि से देखा है जो कर्मों के आधार पर इनसे जुड़े हुए हैं। भारत के गौरवशाली अतीत के स्वर्णमुकुट और राजमुकुट प्रार्थना करते थे-“कर्दमेन प्रजाभूता मयि सम्भव कर्दम"- कर्दम-कीचड़ से समस्त प्रजा सम्पदा की सृष्टि हुई है, अत: मुझे कीचड़ बना दो। अविलम्ब माटी के उभरे, पुष्ट, दृष्टभाल पर कवि की दृष्टि जाती है। उसे विश्वास के चरण विजय-ध्वज लिए आगे बढ़ते दिखाई पड़ते हैं- "अविकल्पी है वह/दृढ़-संकल्पी मानव/...इस शिल्प के कारण/चोरी के दोष से वह/सदा मुक्त रहता है।/...इसने/अपनी संस्कृति को/विकृत नहीं बनाया" (पृ. २७)।