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'मूकमाटी' के प्रणेता
प्रो. (डॉ.) आर. डी. मिश्र कवि निराला इस शताब्दी के एक क्रान्ति चेता कवि हैं - एक ऐसे चिन्तन अनुभूति के पुंज, जिनमें अतीत की सम्पूर्ण थाती के साथ वर्तमान जीवन्त होकर हमें शक्ति, सामर्थ्य और विवेक देता है। उनमें एक ऐसी दृष्टि ऊष्मा है जो हमें अतीत में निहारने का कौशल देती है और वर्तमान को आत्मविश्वास की प्रतीति । यही तारतम्य हमारी राष्ट्रीय अस्मिता है, जो आज बिखर रही है। यही हमारी परम्परा है जो भविष्य के प्रति उन्मुख होने का बल देती है। जब यह अन्विति बिखरती है तब कोई युग चेता उभरकर आता है-युग में क्रान्ति का उद्घोष और अन्याय के प्रतिकार का शंखनाद करता हुआ । यह हमारी संस्कृति की विलक्षणता है जिसने हजारों वर्षों के अर्जन को ध्वस्त होने से बचा लिया
सत्य, अहिंसा और करुणा की मानवीय चेतना ही इस महती संस्कृति का प्राण है । बुद्ध और महावीर से लेकर गाँधी और फिर आज तक इसी अवधारणा और जीवन दर्शन को हमने आत्मसात् किया और आपदा-विपदा के अन्धकार से संघर्ष करते हुए आलोक किरण को उद्भासित किया है। तुलसी इस चेतना के अन्यतम प्रतीक थे। उनकी प्रासंगिकता भी इसी अर्जन में है कि अकबर के शासन में संस्कृति चेतना के विघटन और आस्थाओं के खण्डन के विरुद्ध उन्होंने 'मानस' की रचना की एक परिपक्व मानसिकता और प्रौढ़ विचारणा की अदम्य अभिव्यक्ति के रूप में, जो आज भी शाश्वत है हमें स्पन्दन और प्रेरणा शक्ति देने के लिए। इन्हीं संस्कृति चेता तुलसी का एक आकलन, कवि निराला ने अपनी प्रसिद्ध कविता 'तुलसीदास' में किया है जिसमें तुलसी के युग चेता व्यक्तित्व की मीमांसा तो है ही, साथ ही इसमें निराला की क्रान्ति चेतना और युग चेता व्यक्तित्व की प्रखरता के दर्शन भी होते हैं। उन्होंने सौ छन्दों की इस लम्बी कविता में एक अनूठे छन्द का प्रयोग कर शिल्प को भी नवीनता प्रदान की है।
वह किसी भी संवेद्य व्यक्ति को चैतन्य प्रदान कर उसे युग तत्त्व को समझने का विवेक भी दे सकती है। एक बानगी देखिए तुलसी की युगचेतना, सृजन और शिल्प के विनियोग की सार्थक अभिव्यक्ति, जिसमें युग चेता परिभाषित हो गया है, और वह सारी चेतना उभर कर आ गई है जिसमें युग चेता का निर्माण होता है, उसकी अकुलाहट, उसका उद्वेलन उसे सन्नद्ध करता है अन्याय का प्रतिकार और अन्यायी का विरोध करने के लिए। उसकी समग्र अस्मिता उसे निर्भीक बनाती है और वह समर्पित हो जाता है एक पुनर्जागरण के अलख और क्रान्ति के उन्मेष के लिए । यही शक्ति युग स्वर बनकर गूंजती रहती है - शाश्वत, निरन्तर । निराला का यही आकलन है - कवि का, कवि की वाणी की प्रतीति बनकर :
"देश-काल के शर से बिंध कर यह जागा कवि अशेष-छविधर इनका स्वर भर भारती मुखर होएँगी; निश्चेतन, निज तन मिला विकल, छलका शत-शत कल्मष के छल
बहती जो, वे रागिनी सकल सोएँगी।" ऐसी ही आशा, अपेक्षा होती है युग पुरुष से, युग मानवता को।