________________
140 :: मूकमाटी-मीमांसा
पंक्तियाँ दर्शन पक्ष को कमज़ोर नहीं बल्कि उसे और भी पुष्ट एवं ग्राह्य बनाती हैं। एक जगह पर आचार्यजी गणतन्त्र के खोखलेपन को निरूपित करते हुए कहते हैं :
"कभी-कभी हम बनाई जाती/कड़ी से और कड़ी छड़ी अपराधियों की पिटाई के लिए।/प्राय: अपराधी-जन बच जाते निरपराध ही पिट जाते,/और उन्हें/पीटते-पीटते टूटती हम। इसे हम गणतन्त्र कैसे कहें ?/यह तो शुद्ध 'धनतन्त्र' है/या
मनमाना 'तन्त्र है !" (पृ. २७१) ये पंक्तियाँ इस तथ्य को प्रमाणित करती हैं कि दर्शन एवं अध्यात्म चेतना से अनुप्राणित आचार्यजी के भीतर एक यथार्थचेता कवि विद्यमान रहा है। जैन दर्शन में अपरिग्रह को सर्वाधिक महत्त्व दिया गया है । वह तो उसका आधारभूत तत्त्व रहा है । यह कम आश्चर्य की बात नहीं है कि मार्क्सवादी सिद्धान्त, जो कि विशुद्ध भौतिकतावादी वैज्ञानिक चिन्तन है, में 'अपरिग्रह' को अत्यन्त महत्त्व दिया गया है । अपरिग्रह के त्याग का परिणाम शोषण है । भले ही शोषण को मिटाने के मार्ग अलग-अलग क्यों न हों, किन्तु शोषण के मूल के सम्बन्ध में जो बुनियादी बात कही गई है, वह एक सी है। हाँ, उसकी अवधारणाएँ बिलकुल विपरीत हैं। कहने का मतलब यह है कि प्रस्तुत काव्य दार्शनिक चिन्तन को प्रतिपादित करने वाला होने पर भी इसमें सामाजिक जीवन के भौतिक पक्ष का उद्घाटन भी किया गया है तथा इसमें समाज चिन्तन के ऐसे बिन्दु निहित हैं जो यथार्थ जीवन से जुड़े हुए हैं। इस काव्य में उपादान से बढ़कर निमित्त का महत्त्व रहा है, क्योंकि मिट्टी के लोंदे का कुम्भ का सार्थक रूप धारण करने में निमित्त का यानी बाह्य उपकरणों की क्रियाशीलता अनिवार्य बताई गई है । अलौकिक आभा से मण्डित ईश्वरीय सत्ता के प्रति अधिक उत्सुक श्रद्धालु हृदय की भाव विदग्धता से बढ़कर कर्मलीन आस्थावान् आत्मा का निष्काम समर्पित आचरण मुझे अधिक मूल्यवान् लगता है । लक्ष्य तो महान् है, अलौकिक है किन्तु साधन कम पावनमय और आलोकपूर्ण नहीं हैं। अत: अचेतन की पुकार महान् सिद्धि को प्राप्त करने की है तो चेतन का आग्रह साधन को सार्थक दिशा की ओर ले जाने में।
___इस महाकाव्य में आचार्य विद्यासागर की अद्भुत काव्यकला के दर्शन मिलते हैं । शब्दों के अर्थों की तहें झाँकनेवाली उनकी अर्थभेदी दृष्टि से साधारण-सा शब्द भी विलक्षण अर्थगौरव प्राप्त कर अभिभूत हो उठा है । उन्होंने शब्दों को नया संस्कार दिया है । एक सिद्ध कवि ही ऐसा कर सकता है । मुक्त छन्द में रचित यह काव्य कहीं भी काव्यशास्त्रीय बन्धनों में जकड़ा हुआ नहीं है। महाकाव्य की विधा को आचार्यजी ने मुक्तावस्था का वरदान प्रदान किया है। इस काव्य का एक विशेष उल्लेखनीय विलक्षण गुण यह है कि इसे कहीं से भी पढ़ा जा सकता है। अर्थ परम्परा खण्डित नहीं होती है । आचार्यजी ने महाकाव्य को एक नया मुहावरा दिया है। इसमें निहित बिम्ब विधान, प्रतीक योजना, शब्द प्रयोग, चिन्तन पद्धति कबीर की याद दिलाती है । काव्य में युक्त आप्त वचन, सूत्र वाक्य, वक्तव्य आदि कवि के चिन्तन की सफाई और अभिव्यक्ति की सादगी को प्रकट करते हैं । रस परिपाक, वाक् वैचित्र्य, वाणी की विदग्धता, रमणीक अभिव्यंजना, अनुप्रास की घटा, अलंकारों का सौन्दर्य आदि शृंगार कवियों की याद दिलाते हैं (काव्य के भौतिक पक्ष की दृष्टि से) किन्तु वाग्विलास इसमें नहीं के बराबर है। यह कलात्मक संयम जो है, वह आचार्यजी के व्यक्तित्व के कारण है। विशुद्ध काव्य प्रेमियों के लिए भी यह अत्यन्त सरस काव्य सिद्ध होगा। इस प्रकार यह काव्य दर्शन से बोझिल नहीं है, चिन्तन से आक्रान्त नहीं है और न ही तत्त्व मीमांसा से आतंकित है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि 'मूकमाटी' आधुनिक हिन्दी साहित्य की एक वैशिष्ट्यपूर्ण काव्य कृति है।
[दि जर्नल ऑफ दि कर्नाटक यूनिवर्सिटी (KXXIV-1990-91), कर्नाटक यूनिवर्सिटी, धारवाड़, कनार्टक]