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मूकमाटी-मीमांसा :: 139
"नीर का क्षीर बनना ही/वर्ण-लाभ है,/वरदान है।
और/क्षीर का फट जाना ही/वर्ण-संकर है/अभिशाप है।” (पृ. ४९) माटी अभिशाप से मुक्ति पाकर वरदान का वरण करती है। दूसरे खण्ड में कुम्भकार द्वारा मिट्टी को कुम्भ के रूप में ढालने की विभिन्न प्रक्रियाओं का वर्णन है । यहाँ सन्तकवि की काव्य चेतना के विविध आयाम उजागर हुए हैं, दार्शनिक चिन्तन और अध्यात्म बोध के साथ रसानुभूति, सौन्दर्य प्रज्ञा, अभिव्यंजना कौशल का मनोहारी रूप देखने को मिलता है । बोध का शोध के रूप में परिणत हो जाने को ही शब्द की सार्थकता बताई गई है। मतलब अर्थबोध क्रिया में, आचरण में परिणत होकर कर्म से सम्पृक्त हो जाता है । बोध से शोध की ओर का यह संक्रमण एक मौलिक उद्भावना है। आचार्यजी ने सबल तर्क के साथ क्रिया के, आचरण के तथा कर्म के महत्त्व को स्थापित किया है। तीसरे खण्ड में अपने विकास क्रम में माटी किस तरह अनुपम उपलब्धियों को प्राप्त करती है, इसका अंकन किया गया है । उसका सुनिश्चित लक्ष्य रहा है- “निरन्तर साधना की यात्रा/भेद से अभेद की ओर/वेद से अवेद की ओर/बढ़ती है, बढ़नी ही चाहिए"(पृ.२६७)। चौथे खण्ड में कुम्भ बने माटी के अवा में तपकर सम्पूर्ण रूप से शुद्धता प्राप्त करने तथा एतत् द्वारा पूर्णता की अवस्था तक पहुँचने की कथा बड़े ही रोचक ढंग से बताई गई है । तपे जाने की प्रक्रिया का अग्नि परीक्षा से गुज़रे बिना साधना पूरी नहीं होगी और कुम्भकार की कल्पना साकार नहीं होगी। पका, तपा कुम्भ तभी तो तैयार होगा । इस खण्ड में इतने कथा सन्दर्भ हैं और कथा विवृत्ति के इतने स्तर तथा आयाम हैं कि उन सबका विश्लेषण यहाँ सम्भव नहीं है। माटी कुम्भ के रूप में ढलकर ऐसी अवस्था प्राप्त करती है जिसमें उसे शाश्वत अधिवास प्राप्त होता है। कवि कहता है :
".."बन्धन-रूप क्क्तन,/मन और वचन का/आमूल मिट जाना ही/मोक्ष है। इसी की शुद्ध-दशा में/अविनश्वर सुख होता है/जिसे
प्राप्त होने के बाद,/यहाँ/संसार में आना कैसे सम्भव है..!" (पृ. ४८६-४८७) इस प्रकार माटी की इस कथा के माध्यम से मिट्टी के पुतले मानव के भौतिक, मानसिक, आत्मिक, चेतनात्मक तथा आध्यात्मिक विकास गाथा अंकित की गई है। इसका आधारभूत धरातल जैन दर्शन रहा है । यहाँ दार्शनिकता मात्र चिन्तन के धरातल पर ही नहीं अपितु अनुभूति और सामाजिक बोध के स्तर पर भी अभिव्यक्त हुई है। मुझे इस काव्य में निहित अध्यात्म चिन्तन से बढ़कर लोक व्यवहार की बातें, सामाजिक दायित्व का बोध तथा युगीन चेतना अधिक आकर्षित कर सकी है। एक मच्छर द्वारा मानवोचित आचरण तथा सामाजिक दायित्व का बोध कराते हए आचार्यजी कहते हैं :
"...खेद है कि/लोभी पापी मानव/पाणिग्रहण को भी प्राण-ग्रहण का रूप देते हैं।/प्राय: अनुचित रूप से/सेवकों से सेवा लेते/और वेतन का वितरण भी अनुचित ही।/ये अपने को बताते/मनु की सन्तान ! महामना मानव !/देने का नाम सुनते ही/इनके उदार हाथों में पक्षाघात के लक्षण दिखने लगते हैं,/फिर भी, एकाध बूंद के रूप में
जो कुछ दिया जाता/या देना पड़ता/वह दुर्भावना के साथ ही।"(पृ.३८६-३८७) आधुनिकता से अनुप्राणित आज के कवियों के द्वारा वर्तमान जीवन की विवृत्तियों, विद्रूपताओं और विसंगतियों पर किए गए व्यंग्य की तरह आचार्यजी का यह काव्य समकालीन समाज व्यवस्था की शल्यचिकित्सा करता-सा प्रतीत होता है । शोषणशील व्यवस्था के ऐसे चित्रण अध्यात्म चिन्तन को यथार्थता का ठोस धरातल प्रस्तुत करते हैं । ऐसी