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मूकमाटी-मीमांसा :: 137
हैं-सत्ता के, सम्पत्ति के, महत्त्वाकांक्षाओं के, पद की लोलुपता के तथा जिन्हें आज हम, आप, सब राजनीति के घिनौने वात्याचक्र में देख रहे हैं, उन्हें फूंकना है यज्ञ में, वह भी बलि देकर नहीं बल्कि उस पावन अग्नि में अपनी कामनाओं, लिप्साओं और अमानुषिकता का स्वाहा करके । कबीर इन्हीं घरों को फूंकने की चेतना दे रहे हैं, यही इन शब्दों की सार्थकता है, जिन्हें आत्मसात् करके भीतर लौटना है, कबीर के शब्दों के साथ।
उसी तरह माटी के मौन में भी आचार्यश्री की मुखरता को सुनना है, आत्मसात् करना है 'अनहद नाद' की तरह । कल्पना में भी यथार्थ की खोजपूर्ण चिन्तना को पहचानना है । वे भी कबीर की भाँति अपने साथ चलने का उद्घोष कर रहे हैं । परिव्राजक के रूप में नहीं बल्कि संस्कृति की चेतना से चैतन्य होकर, मानवीय कल्याण की ऊष्मा प्रदान करने के लिए, युग चेता बन कर तथा मानवता को गति देकर, गन्तव्य की अनुभूति प्रवणता प्रदान कर । यही आचार्यश्री की समूची पूँजी है, जो मानवता को अर्पित है, तपसिद्धि बन कर । ऐसे ही निराला ने तुलसी को देखा था। उनकी ये पंक्तियाँ कितनी सटीक हैं आचार्यप्रवर पर भी, मानों उन्हीं के लिए रची गई हैं :
"इस जग के मग के मुक्त-प्राण गाओ-विहंग !-सद्ध्वनित गान,
त्यागोज्जीवित, वह ऊर्च ध्यान, धारा-स्तव ।" वह गान क्या है, यह तुलसी ने अपने युग में पहचाना था। निराला ने उस अनुगूंज को सुना था। 'मूकमाटी' का ध्वनि सन्देश क्या है, इसे हमें पहचानना है, उसमें डुबकियाँ लगाकर । उस मुखरता को सहेजकर, सँजोकर, समोकर ।
पृष्ठ ४९ अरे कंकरो। मारी से मिलत तो हुआ - ... मारी नहीं बनते तुम
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