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136 :: मूकमाटी-मीमांसा सम्पूर्णता में एक अद्भुत दीप्ति आवेष्टित कर दी है। इसी से उद्भूत, वह आलोक किरण जो हम, आप, सबको अन्धकार से प्रकाश की ओर ले जाती है । वे धरती के कण-कण की पहचान अपनी पदचाप से करते गतिमान् हैं और चरणों में जो प्रतीति होती है माटी की, वह उनकी कवित्व की अनुभूति बनकर युग चेतना की उद्भावना करती है। वे धरती की माटी की सोंधी गन्ध में अपनी तपोनिष्ठा से जो स्वर सुनते हैं, वह उन्हें जगाते हैं, और मन को प्रबुद्ध कर मानव की उस अस्मिता के समीप ले जाते हैं जो युगबोध का चैतन्य कहलाता है।
_ 'मूकमाटी' की यही भूमि है, कवित्व का धरातल । यदि वह महाकाव्य है तो उसका कथानक क्या है, वह क्या आख्यान है, क्या प्रबन्ध है- इन सब प्रश्नों और मीमांसा से परे, हमें इस महाकाव्य में इस महादेश की महती संस्कृति के उस स्वरूप को खोजना पड़ेगा जो युग-युग से इस देश में ऋषि-मनियों की चेतना और तप की सिद्धि रही है। इस महाकाव्य में माटी के मौन में एक कथानक स्वयमेव [थता जाता है और पात्र माटी के सम्पर्क में उद्भासित होकर कथानक के
क के चरम पर पहुँच कर एक निष्पत्ति करा देते हैं किन्त इस सबका दर्शन करने के लिए चर्मचक्ष के भीतर ज्ञानविवेक की दृष्टि और अन्तर्मन की अमलिनता अपेक्षित होगी। नगर-नगर और डगर-डगर का भ्रमण करने वाले इस प्रखर सन्त ने अपने परिव्राजन के दौरान मानवीय सभ्यता, प्रगति और विकास की गति में विकृतियाँ देखीं, मानवता के आवरण के भीतर झाँक कर देखा उस अमानुषिकता को, जो सांस्कृतिक क्षरण का कारण बनी है । भारत कितना पावन था, कितनी करुणा, दया, प्रेम, सहिष्णुता की परिपूर्णता थी और अब क्या हो गया है मेरे देश को, महामानवों की इस माटी को ? कहाँ तो प्राणिमात्र के प्रति दया, ममत्व की भावना और उसे संरक्षण का आश्वासन । और कहाँ यह निर्दयता?
ऋषि वाल्मीकि तड़पते क्रौंच और बिलखती क्रौंची को देख कर उद्वेलित हुए थे, उद्विग्न हो जाते हैं, उनका ऋषि सत्य उद्भूत होता है, युग वाणी बन कर । विश्वामित्र भरतभूमि की दुर्दशा देख कर ही पहुँचे थे, दशरथ के पास। “दशरथ ! तुम मुझे राम दे दो, मैं तुम्हारा आर्यावर्त बचा लूँगा।" अत्याचार और अन्याय का प्रतिकार करने के लिए हमारा सन्त ही सदैव सामने आया है । यह हमारी परम्परा, इतिहास है । आज फिर वही वध की विकृति और हत्या की नृशंसता सामने है। हमारे सांस्कृतिक जीवन की मूल चेतना सत्य, अहिंसा और करुणा की प्रतीति थी। उनकी अवहेलना और हमारे पोषित संस्कारों की अवमानना होते देखकर सन्त आकुल होता है, उसकी संवेदनशीलता उसे उद्वेलित करती है। उसकी आँखें सुदूर भविष्य में झाँकती हैं, आने वाली शताब्दी में अपनी पैनी अन्तर्दृष्टि से वह देखता है। यदि ऐसा ही होता रहा तो भारत माँ की माटी निष्पन्द हो जाएगी। उसकी ममत्व की सोंधी गन्ध ही विलीन हो जाएगी। सारी सम्पदा
और तप का अर्जन ही ध्वस्त हो जाएगा । उसकी व्याकुलता एक समर्थ प्रक्रिया के रूप में फूटती है, क्रान्ति वाणी का उद्घोष-“मांस निर्यात बन्द करो" - "करो या मरो" का प्रतीक/पर्याय बनकर युग ध्वनि का रूप धारण कर ।
ऐसा सन्त जब युग पटल पर आता है तब क्रान्ति होती है-सुनियोजित, सुविचारित । और निर्भीकता की यह ध्वनि जागरण की चेतना बन कर युग-युगान्तर तक गूंजती है। इस स्वर को पहचानने की सामर्थ्य और विवेक ही सन्त, तपस्वी की मेधा-वाणी देती है और उसका अवतरण बन जाता है युग सत्य । कभी कबीर ने भी इसी प्रकार आक्रोश में ललकारा था:
“कबिरा खड़ा बजार में लिए लुकाठी हाथ ।
जो घर फूंके आपना चले हमारे साथ ॥" यह वास्तविक घर नहीं। भौतिक सम्पत्ति नहीं। कबीर के स्वर की यही पहचान है । अपने भीतर जो घरौंदे बने