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134 :: मूकमाटी-मीमांसा
तपस्वी विद्यासागरजी को जब-जब पढ़ता, सुनता और गुनता हूँ तब-तब निराला के तुलसीदास की न जाने कितनी पंक्तियाँ आचार्यश्री की प्रखरता में ध्वनित होने लगती हैं, जो उन्होंने युग चेता के तपस्वी और मनस्वी रूप में संयोजित की हैं। वे सन्त हैं, मुनि हैं, ऋषि और युग परिव्राजक के साथ ही क्रान्ति चेता युगपुरुष भी हैं। किन्तु इन सब के ऊपर वे कवि हैं, केवल कवि । मेरा सोच है कि उनके बहुआयामी व्यक्तित्व का स्रोत ही कवि है, उनका उद्गम ही उनकी संवेदनशीलता है। उनकी मानवता के प्रति वही करुणा जो कभी महावीर स्वामी, बुद्ध, शंकर से होकर अनेक रूपों में व्यंजित होती हुई तुलसी और फिर गाँधी में समाहित थी। उनका कवि हृदय अन्याय का प्रतिकार करने की व्यास वाणी बनकर गीता का उन्मेष कराता है। उनकी सत्य की प्रतीति वाल्मीकि के राम को उनमें साकार कर युग सत्य की अभिव्यक्ति कराती है । वे ऋषियों की समस्त चेतना वाणी लेकर मूर्तिमन्त हुए हैं इस सदी में।
उनकी अनुपम कृति 'मूकमाटी' की अन्तरंगता को पहचानने के पूर्व मैंने उनकी व्यक्ति चेतना की उस अस्मिता को तलाश करने की चेष्टा की, जो उनमें अनुगुंजित होकर युग स्पन्दन बनी है । इसी भटकन में मुझे सान्निध्य मिला उनके तीन तरुण शिष्यों का-मुनि समतासागर, मुनि प्रमाणसागर और ऐलक निश्चयसागर का। उनके प्रति किसी अज्ञात प्रेरणा से आकृष्ट हुआ । इस आपाधापी के युग में भी उनकी अपने तपोनिष्ठ गुरु के प्रति गहन निष्ठा और नि:स्वार्थ समर्पण भावना को देखकर और उन्हीं में प्रतिबिम्बित देखता रहा उस पावन तपस्वी की क्रान्तिचेतना को और इन तरुण सन्तों में पहचानता रहा उनका तेजोमय स्वरूप और करता रहा भारत की संस्कृति के पावन रूप का दर्शन उस तपोनिष्ठ के जीवन्त मूर्तिमन्त में।
सन्त दूरदर्शी होता है। वह वर्तमान में स्थिर रहकर सुदूर भविष्य में झाँकने का अद्भुत कौशल जानता है और यही विधि कौशल वह अपनी युग पीढ़ी को देता है तथा उसे वर्तमान में रहने वाले केवल 'वर्तमान जीवी' होने से बचा लेता है। आचार्यप्रवर का पूरा अर्जन आज यही युग चेतना देता हुआ उन्हें गतिवान् बनाए है । उनका सम्पूर्ण तेज ही उनका परिव्राजन है । मानवता के प्रति उनकी समर्पित भावना ही उनकी निष्ठा है। उनकी गति ही प्राण चेतना है और यही तपस्या की सिद्धि गन्तव्य है, उस तापस का । प्रकृति और पुरुष के साहचर्य की अनुभूति शक्ति ही उनका अनुष्ठान है, युग सत्य की खोज का । जगत् कल्याण के प्रति अकुलाहट ही उनका आत्मान्वेषण है । अपरिग्रह का सन्देश देने वाले सन्त का यही परिग्रह है । हृदय कोष में करुणा की अक्षय निधि है।
इसी संवेद्य ध्वनि ने इस युग चेता सन्त को माटी के मौन में भी ध्वनि की अनुभूति और स्वर का एहसास कराया है । माटी के मौन स्पन्दन में भी उसने प्राणिमात्र के क्रन्दन के साथ मानवता के अभिनन्दन की गूंज सुनी और यही समन्विति ही उसकी काव्य चेतना की कमनीयता है । यह कृति साहित्य की विधा है, कवित्व है, महाकाव्य की आकृति है अथवा एक लम्बी काव्यानुभूति-यह तो हम सब समीक्षकों के मापदण्ड के विधान और परख के शिकंजे हैं। इन सब शिल्प, कलेवर और परिभाषा के निकष के परे वह एक सन्त की संवेद्य दृष्टि की अनुपम अभिव्यक्ति है। एक तपस्वी की तपस्या की समूची पूँजी, काव्यनिधि है । आचार्यश्री का कवि रूप ही उनकी वह व्यंजना है जो प्राणि मात्र के प्रति सम्पूर्ण संवेदना से व्यक्त हुई है, शब्दों के बोल और माटी के मौन में । वे तपस्वी, सन्त, साधक और ऋषि कुछ भी हों, उनका मूलरूप कवि का ही है जो हृदय से नि:सृत हुआ है, चेतनाओं की अनेक मुखी धाराओं में । उस मानसरोवर में कवित्व का अथाह सागर समाया है जिसमें कवि-मनीषी आचार्यश्री स्वयं अवगाहन करते हैं और हम सबको, प्राणिमात्र को स्फूर्त करते हुए सन्देश देते हैं कि जीवन की सार्थकता डूबने में नहीं, डुबकियाँ लगाने में हैं, कमल के पत्र की भाँति जल बिन्दु रहित, निर्लिप्त । वीतरागता की इससे सहज परिभाषा और क्या हो सकती है, जो संन्यास की प्रतीति है। संसार सागर में डुबकियाँ लगाते रहो और अपना प्रक्षालन करते हुए परिष्कृति करो। कवि रहीम ने इसी को अलग शैली-प्रतीकों में