________________
मूकमाटी-मीमांसा :: 21
(१) प्रचलित और सरल अभिव्यक्तियों का प्रयोग (२) सम्बोधनों की छटा (३) नवीन भाषा प्रयोग (४) सूक्ति कथन (५) उपमेयता (६) उर्दू भाषा के सहज प्रयोग (७) व्याख्या/परिभाषा (८) अनुप्रास प्रयोग (९) तुकान्तता।
प्रचलित और सरल अभिव्यक्तियों के स्तर पर देखने पर यह लगता है कि 'मूकमाटी' का कवि अपने लोक और लोक-भाषा प्रयोग से कितने गहरे जुड़ा हुआ है । उसका यह जुड़ाव भावाभिव्यक्ति को तत्काल पाठक के मानस-पटल पर बिखरा देता है । इस प्रकार के प्रयोग कहीं लोक-मुहावरों से सम्बद्ध हैं, कहीं लोक-विश्वासों से, कहीं बोलचाल की शैली से तो कहीं पूरे परिवेश को चित्र की भाँति पाठक के समक्ष उकेरने से । कुछ प्रयोग देखें : "झट-पट झट-पट/ उलटी-पलटी जाती माटी!(प.१२७). अपनी दाल नहीं गलती, लख कर (प.१३४), हास्य ने अपनी करवट बदल ली (पृ.१३४), 'नाक में दम कर रक्खा है' (पृ.१३५), इस पर प्रभु फर्माते हैं... (पृ.१५०), घूम रहा है माथा इसका (पृ.१६१), कुम्भ का गला न घोट दिया (पृ.१६५), संसार ९९ का चक्कर है (पृ.१६७), धग-धग लपट चल रही है (पृ.१७७), चिलचिलाती धूप है (पृ.१७७), साबुत निगलना चाहती है ! (पृ.१८७), छूमन्तर हो गया (पृ. २०७), हाथों-हाथ हवा-सी उड़ी बात (पृ. २११), गुरवेल तो कड़वी होती ही है/और नीम पर चढ़ी हो/तो कहना ही क्या! (पृ.२३६), ईंट का जबाव पत्थर से दो !(पृ.२४८), जब सुई से काम चल सकता है/तलवार का प्रहार क्यों? (पृ.२५७), अपनी चपेट में लेता है (पृ. २६१), नव-दो-ग्यारह हो जाता है पल में (पृ. ३९७), 'माटी, पानी और हवा/सौ रोगों की एक दवा'(पृ. ३९९), कोप बढ़ा, पारा चढ़ा (पृ. ४६५), उसके दृढ़ संकल्प को/पसीना-सा छूट गया ! (पृ. ४६९), 'पूत का लक्षण पालने में '(पृ. ४८२)।" ऐसे प्रयोग मूकमाटी'को पठनीय भी बनाते हैं और पाठक के साथ सीधा रिश्ता कायम करते हैं।
पाठक के लिए सहज सम्प्रेषणीय बनाने में 'मूकमाटी' में सम्बोधनों का प्रयोग भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है । गद्य लेखन में सम्बोधन अनिवार्य होते हैं। यहाँ काव्य में इनका प्रयोग भाषा और अभिव्यक्ति दोनों को सशक्त रूप से सम्प्रेषणीय बनाता है और कवि इन सम्बोधनों द्वारा सम्बोध्य से अपने को आत्मीय धरातल पर जोड़ पाता है : “और सनो ! (प. ५). बेटा ! (प. ७). हाँ ! हाँ !! (प. १०). धन्य ! (प. २६), सनो ! (प. २६), हे मानी, प्राणी ! (पृ. ५३), भूल क्षम्य हो माँ ! (पृ. ५६), स्वामिन् ! (पृ. ६०), हे भ्रात ! (पृ. ६०), चल री चल"! (पृ. ७१), सुनो बेटा ! (पृ. ८२), हे प्रभो ! (पृ. ११५), ओ माँ माटी ! (पृ. ११९), अरे मौन ! (पृ. १२१), हे देहिन् ! (पृ. १४३), हे शिल्पिन् ! (पृ. १४३), ओ मनोरमा ! (पृ. १४४), रे शृंगार ! (पृ. १४४), अरे पथभ्रष्ट बादलो ! (पृ. २६१), हे शिल्पी महोदय! (पृ. २९४), आइए स्वामिन् ! (पृ. ३२३), अरे पापी ! (पृ. ३७२), अरे मतिमन्द, मदान्ध, सुन ! (पृ. ३७४), अरे कातरो, ठहरो!" (पृ. ४२६)। ये सम्बोधन प्रसंग, सम्बोधित और सन्दर्भ से मिल कर आदर, उपेक्षा, घृणा, स्नेह, हताशा, कामना आदि अनेक भावों की अभिव्यक्ति इतनी सहजता से करते हैं कि आचार्यजी की अभिव्यक्ति क्षमता पर अचरज होने लगता है और जो अन्तत: उनके प्रति श्रद्धावनत कर देता है।
आचार्यजी ने सहज सम्प्रेषणीयता के लिए भाषा के व्याकरणिक नियमों को तोड़ कर नवीन भाषा-प्रयोग को भी स्थान दिया है । ये नवीन प्रयोग संरचना के स्तर पर भी किए गए हैं, जिन्हें सर्जनात्मक भाषा अध्ययन में 'विचलन' कहा जाता है और परम्परागत अर्थ से सम्पृक्त शब्दों को नवीन अर्थ सन्दर्भ दे कर भी प्रयुक्त किया गया है। नवीन भाषा प्रयोग 'मूकमाटी' को सर्जना शक्ति से पुष्ट करते हैं : “प्रतिकार की पारणा (पृ. १२), विराधना (पृ. १२), कलिलता आती है (पृ. १३), मुड़न (पृ. २९), जुड़न (पृ. २९), क्रुधन (पृ. ३०), हमारा वियोगीकरण (पृ. ४५), फूलन (पृ. ९४), रौंदन (पृ. ११३), कहकहाहट (पृ. १३३), ओरे हँसिया ! (पृ. १३३), हँसन-शील (पृ. १३३), बदलाहट (पृ.